सवर्ण हिन्दूओं के जाल मे फसे चमार जातियों के मुक्ति हेतु रविदासीया धर्म जय रविदास ! जय भीम !! जय गुरुदेव !!! |
उस समय राजा एवं प्रजा पर धर्म ग्रंथो का
निर्वविाद अधिकार था. धर्मग्रंथो के अनुसार आचार अर्थात कानून एवं धार्मिक विधि
अर्थात नतिकता मानी जाती थी. आज धर्माध धर्म सत्ता समाप्त हो गई है इसलिए धर्म
निरपेक्ष लोकतंत्र व खुली अर्थव्यवस्था का आग्रह करते हुए सारा विश्व तानाशाही से
लोकतंत्र की और एवं सत्तावाद से मानवतावाद की और एवं धर्माधता से संहिष्णु
आध्यात्मिक, धार्मिकता की और बढ रहा है. भारतीय
संविधान ही परिपूर्ण जीवनमुल्य के रूप में भारतीयों द्वारा स्वीकार करने से
धर्मनिरपेक्ष भारतीय लोकतंत्र में जीवन व्यतीत करने वाले आधुनिक काल के लोगों के
दिन प्रतिदिन दिनचर्या में धर्म का महत्व कम हो गया है.
ऐसा होते हुए भी भारत के सभी धर्मो के लोग
धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक,
पारंपारिक, रितिरिवाजों को जतन करने के नाम पर
अपने धर्म संघ का शक्ति प्रदर्शन करते है और भारतीय लोकतंत्र का आधार ही संघ शक्ति
अथवा संघटन पर आधारित होने से स्वधर्मियो के संघ शक्ति के बल पर राजनिति करते है
और लोकतंत्र द्वारा प्रदान किए हुए सामाजिक, आíथक, शैक्षणिक लाभ एवं आपातकाल में
परधर्मियों से अपने धर्म बंधुओ को सुरक्षा दिलाने का प्रयत्न करते हैं. इसी से
धर्म यह अफीम की गोली है, ऐसा कार्ल मार्क्स ने कहा था,
लेकिन भारतीय धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में धर्म को ही अधिक महत्व
प्राप्त हाने से धर्म यह अफीम की गोली न रहते धारण करणे वाले समाज का सुरक्षा कवच
है. यह कहना गलत न होगा.
संपूर्ण भारत में हिन्दू धर्म की कुल 4635 जातियों में से 3527 जातियां
सवर्ण हिन्दू और 11०8 जातियां
वर्णबाष्टद्धr(39) अस्पृश्यों की है. सामाजिक सुधार के सभी
प्रयोग इसी जाति पर होते है, इसलिए धर्म, जाति-पाति से स्वयं को दूर रखना ही उचित होगा एसी सर्वसाधारण भावना समाज
के मन में निर्माण हो गई है इसलिए मैं धर्म मानता नही. मैं फलां धर्म का हूं परंतु
प्रवृत्ति से धार्मिक नही. मेरा जन्म फलां धर्मीय माता-पिता से हुआ है इसलिए वही
मेरा धर्म है परंतु व्यक्तिगत जीवन में धर्म नाम की कथा मैं नही मानता. मैं
सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन में धर्म के साथ-साथ आनेवाली रुढि
और परंपराओं को मानता हूं. लेकिन देवी-देवता को नही मानता. ऐसी लोगो की धारणा होने
के बावजूद प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी धार्मिक संघ से बंधा हुआ है. वही उसकी सामाजिक आवश्यकता भी है क्योंकि एक व्यक्ति को धर्म की आवश्यकता
नही रहती, लेकिन व्यक्तियों के समूहों द्वारा निर्मित समाज
को धर्म के सिवा दर्जा प्राप्त नही होता.
हिन्दू धर्म ने बहिष्कृत करने के बाद से
विश्व के अस्तित्व में आए हुए किसी भी धर्म की पहचान न होते हुए व अस्पृश्य चांभार, ढोर, माला, मादिगा,
मोची, चमार, रेगर,
आदि समाज-मन में
दरुगधीयुक्त नामों को माथे पर अंकित कर पीढी-दर-पीढी गंदगी भरे काम करते
हुए, अन्याय, अत्याचार चुपचाप सहन करते
हुए गांव के बाहर रहते हुए किसी तरह जीवनयापन करते. हमारे समाज को महात्मा गांधी
जी ने हरिजन नाम दिया. हरिजन का अर्थ है.. सवर्ण हिन्दूओं ने हजारो सालों से
अन्याय, अत्याचार कर गांव के बाहर रखा. गंदगीभरे काम करने के
लिए मजबुर किया. फिर भी स्वयं को हिन्दू कहलाते है. सवर्ण हिन्दू धर्म के चरणों
में ईमानदारी से अपनी पीढियों को जन्म दिया और आज भी जन्म दे रहे है. उनकी रक्षा
ष्टद्धr(39)हरिष्टद्धr(39) ही कर सकता
है. इसलिए महात्मा गांधी ने हमें हरिजन कहा है.