प्रश्न देवी देवतोओं का?
प्रश्न देवी देवतोओं का? |
समाज केवल विचारों पर जीवित नही रहता, उसे भावना के पोषण की जरूरत रहती है. दव्२ोा१, देवता, आत्मा, परमात्मा,
परब्रह्म, मे समाज की भावना जुडी हई है. इसलिए
ईश्वर को नकारकर लोगों का बुद्धिभेद करना संभव है, परतु
विश्व द्वारा मान्य की हुई ईश्वर की संकल्पना मनुष्य के मन से नष्ट करना केवल
असंभव है. और इसी वजह अध्यात्म, श्रद्धा, उपासना, रूढि - परम्परा, देवी
- देवता, कुल देवता हमारे ही पूर्वजों ने निर्माण की हुई
भारतीय संस्कृति की विरासत है. इसका किसी भी अर्थ से हिन्दू धर्म से संबंध नही है.
हिन्दू धर्म ईश्वर नाम के तत्व पर खडा है, ऐसा कुछ लोग मानते
है, परंतु हिन्दू धर्म की पहचान वर्ण एवं जाति व्यवस्था है.
हिन्दू धर्म का होने से किसी ना किसी वर्ण या जाति का होना आवश्यक है. कौन से
देवता की पूजा करते है, यह महत्वपूर्ण नहीं मतलब हिन्दू धर्म
की पहचान उस व्यक्ति की जाति से होती है, किसी देवता की पूजा
से नही अर्थात जाति हिन्दू धर्म का मुख्य तत्व है. जिस तरह एक हिन्दू व्यक्ति के
मुस्लिम दरगाह मे जाने, पूजा करने, मन्नत
मांगने से तो वह मुसलमान नही हो जाता. उसी तरह एक मुस्लिम व्यक्ति के अपने घर में
भक्तिभाव गणेश जी की प्रतिष्ठापना कर पूजा पाठ करने से वह भी हिन्दू नही हो जाता.
इस हिन्दूस्तान में जन्मे हुए प्रत्येक व्यक्ति को भारतीय संस्कृति श्रद्धा,
देवी - देवता, कुल देवता की यात्रा ओर वारकरी
जैसे भरे हुए है. इन्हें किसी भी धर्म की चौखट में बांधकर नही रखा जा सकता,
लेकिन भारत में जो भी निर्माण हुआ वह हमारा ही है, ऐसा कहने की हिन्दू धर्मियो की पुरानी आदत है. इस मामले में संत
ज्ञानेश्वर महाराज का उदाहरण उचित होगा - ष्टद्धr(39)देव ते
कल्पित शास्त्र शाब्दीक । पुराणे सकळिक बाष्कलीक ॥1॥
ज्ञानेश्वर गाथ साखरे पत 547ष्टद्धr(39), देवता काल्पनिक है. शास्त्र शाब्दिक हैं और सभी पुराण वाचिक है. यह सत्य
बताते और इसलिए ज्ञानेश्वर महाराज और उनके भाइयों को जीते हुए हिन्दू वर्ण
व्यवस्था में स्थान नहीं मिला, परंतु मृत्यु के पष्टद्धr(155)ात वे हमारे ही है, संत तुकाराम महाराज जब जीवित थे,
तब उनकी गाथा को इंद्रायणी नदी में डुबाया और मृत्यु पष्टद्धr(155)ात वे भी हमारे ही है, सभी संत हमारे ही है, ऐसा कहना, लेकिन उन्हें स्वीकार नहीं करना. सभी
अस्पृश्य समाज हमारा हिन्दू है, ऐसा सिर्फ कहते रहना,
परंतु उन्हें स्वीकार नहीं करना, कभी भगवान
बुद्ध को विष्णु का अवतार कहना तो भी हाजी मलंग को श्री मलंग कहना यह हिन्दू धìमयों की परम्परा है. संत एकनाथ महाराज कहते हैं, ष्टद्धr(39)देवता सुख दु:ख दायक ।
ऐसे कहना आवश्यक । ती दैवते मन काल्पनिक । त्याचे दु:ख मजसी न लागे ॥579॥
देवता रुपाने मन आपण । मने कल्पिले देवतागण
। ते जै सुख देती जाण तै । मुख्य कारण मन जाहले ॥58०॥
देवता सुख दुखदायक हैं, ऐसा कहना अनिवार्य है, क्योंकि
देवता मन की कल्पना हैं. मन रूप से देवता हम हीं है, मन से
ही देवतागण की कल्पना की है व मन ही हमें सुख दुख देता है. उसका मुख्य कारण हमारा
मन ही है. इसलिए मनुष्य को जब अत्यंत
प्रसन्नता होती है तो अनायास ही ईश्वर की
याद आती है और जब अत्यंत दुख होत है तो भी अनायास ही भगवान याद आते हैं. इससे
ईश्वर और मनुष्य का आध्यत्मिक संबंध जोडकर मानवता को नीतिमूल्यों की सीखं देनेवाले
संत व अध्यात्म, श्रद्धा, उपासना, रूढि, परम्परा,
देवी -देवता, कुल देवता यह हमारे पूर्वजों ने
निर्मित की हुई भारतीय संस्कृति की विरासत होने से हमें उसका सार्थ अभिमान है.
No comments:
Post a Comment