अस्पृशता हा हिंदू धर्मावरील कलंक नसून, तो आमच्या नरदेहावरील कलंक आहे. यासाठी, तो धुवून काढायचे पवित्र कार्य आमचे आम्हीच स्वीकारले आहे.- डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर | कभी हमारा अपना कोई धर्म था| उस धर्म कि धारा सुखी नाहि है| संतो ने उसे प्रवाहित रखा है. गुरु रविदास लिख गये है| धर्म के सार को| वे नया धर्म दे गये है| उस पर चलो| - बाबू जगजीवन राम

Saturday, February 15, 2014

हिन्दू धर्म के लोग हमें दलित, हरिजन समझकर दूर रखते है

समस्त अस्पृश्यों को स्वतंत्र धार्मिक पहचान, संघ शक्त और
भारतीय समाज व्यवस्था में समान सामाजिक दर्जा प्राप्त हो
परमपूज्य डा. बाबासाहेब अम्बेडकर ने महात्मा गांधी के विरोध को ताक पर रखते हुए गोलमेज अधिवेशन में अस्पृश्यों का पक्ष प्रभावी रूप से पेश किया और हिन्दू,मुसलमान, शिख, एंग्लो इंडियन की तरह बहिष्कृत अस्पृश्य जाति भी स्वतंत्र वर्ग है और इन सभी जाति हिन्दू धर्म के बाहर है. उसी तरह इन सभी जाति हिन्दू धर्म में समाविष्ट नही हैं, यह सिद्ध कर राजकीय सत्ता में क्रमानुसार हिन्दू और मुसलमान, सिख की तरह पददलितों को भी सत्ता में योग्य विभाजन और भारतीय संविधान में अस्पृश्यों के हित संबंधो की रक्षा करने की व्यवस्था की.
17 अगस्त 1932 को ब्रिटीश सरकार द्वारा प्रधानमंत्री रैम्से मैकडोनाल्ड ने जाति विषयक  प्रश्नों को निर्णय (कम्यूनल आवर्ड) घोषित किया और मुसलमान, ईसाई, सिख, एंग्लो इंडियन की तरह अस्पृश्य समाज के लिए स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र और इसके अलावा सर्वसाधरण मतदान क्षेत्र में
अस्पृश्यों को केवल आरक्षण संरक्षण दिलाना काफी नही
अस्पृश्यों को ज्यादा मत देने का अधिकार दिया. अस्पृश्यों को दिए गए स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र के विरोध में
2० सितंबर 1932 येरवडा, पुणे की जेल में महात्मा गांधी ने अनशन किया और उससे स्वतंत्र मतदाता क्षेत्र के बदले मध्यवर्ती कानून मंडल में अस्पृश्यों को 18 प्रतिशत आरक्षित जगज और आरक्षित जगह का तत्व सर्व जातियों में एकसमानता होकर रद्द होने तक अमल करें और इस तरह की शर्त पर परमपूज्य डा. बाबासाहेब अम्बेडकर और महात्मा गांधी के बीच करार हुआ. वही ऐतिहासिक पुणे करार है. पुणे करार के जरिये भारत के समस्त अस्पृश्यों के राजकीय, सामाजिक अधिकार प्रस्तावित कर परमपूज्य डा. बाबासाहेब अम्बेडकर ने हमारे जीने का मार्ग सुखमय किया.
अस्पृश्यों को केवल आरक्षण संरक्षण दिलाना काफी नही और सामाजिक, राजकीय, शैक्षणिक और आíथक उद्देश्य से शुरू हुए संगठन कालांतर से समाप्त होने अथवा बंट जाने से यह संगठन स्थायी रूप का न होने पर कोई भी व्यक्ति इस संगठन से हमेशा के लिए बंधा नहीं रहता. धार्मिक संघ के प्रत्येक व्यक्ति का एक दूसरे से भावनात्मक अनुबंध जुडे होते है, इसलिए धर्मसंघ के प्रत्येक व्यक्ति धर्म संघ से हमेशा के लिए जुड जाते है लेकिन अस्पृश्यों का अपना स्वतंत्र धर्म नहीं. धर्म, संघ, शक्ति न होने से जातियों में विभक्त अस्पृश्यों पर हमेशा अन्याय, अत्याचार होते रहेंगे. यह पहचान कर भारत के समस्त अस्पृश्यों को स्वतंत्र धार्मिक पहचान, संघ शक्त और भारतीय समाज व्यवस्था में समान सामाजिक दर्जा प्राप्त हो इसलिए परमपूज्य डा. बाबासाहेब अम्बेडकर ने 13 अक्टूबर 1935 को ऐवले में धर्मातर की घोषणा की और कहा, अस्पृश्य हिन्दू का दाग लेकर मैं जन्मा, परंतु यह मेरे हाथ में नही था, लेकिन हिन्दू कहलाकर मै मरना नहीं चाहता और उसके अनुसार 14 अक्टूबर 1956 को नागपूर में बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और लाखों जनसमूह को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी और समस्त अस्पृश्यों के विश्व के बौद्ध धर्मियों से प्रेमानुबंध स्थापित किया.
इस महान बौद्ध धर्म क्रांति का हमने अपने अज्ञान से, जाति अहंकार से हम सहभागी न हो सके और इसीलिए हमने बौद्ध धर्म को स्वीकार नही किया. बौद्ध धर्म के लोग हमें अपना नहीं समझते. हम मुस्लिम, ईसाई, सिख, जैन धर्म के न होने से उस धर्म के लोग हमें अपना नहीं समझते, जिस हिन्दू धर्म को हमने अपना धर्म माना उस हिन्दू धर्म के लोग हमें दलित, हरिजन समझकर दूर रखते है. जिस जाति के हम है उस चर्मकार समाज में असंगठित 11 सौ जातियां है और प्रत्येक जाति अपना अलगपन जतन कर सवर्ण हिन्दू लोगों की शाबासी लेने चमारपन का जतन करते हिन्दू धर्म के पांव तले इमानदारी से अपनी पीढियों को जन्म दे रहे है, इसलिए चर्मकार समाज में संघशक्ति का अभाव है. हमारा कोई रखवाला नहीं और हमें चुपचाप अत्याचार सहन करना हमारे नसीब में ही है, ऐसी भावना अपने चर्मकार समाज मे बनी हुई है.
अस्पृश्य, हरिजन, दलित की उपाधि से अपमानित हुए अपना समाज अपनी जाति का नाम बताते हुए शर्माता, परंतु हिन्दू धर्म का होने से मैं हिन्दू हूं, ऐसा अभिमान से बताता है. दूसरी और सवर्ण हिन्दू अपनी जाति का नाम खुलकर बाताते है, जो सच्चा हिन्दू और अपनी जाति का नाम बताने में संकोच करता है, वह झूठा हिन्दू है.
सच्चे हिन्दू धर्म में समाविष्ट सवर्ण हिन्दू जातियों को समाज में समान सामाजिक दर्जा प्राप्त है, इसलिए सवर्ण हिन्दू जाति उपजाति के लोग एक वर्तुल में एक संघ होकर रहते है. अज्ञान,अशिक्षा, गरीबी, गंदे रहन-सहन होने से उनमें भेद नही किया जाता. एक विशिष्ट जाति व्यवसाय से उस
प्रत्येक जाति को धार्मिक, सामाजिक,
समान दर्जा
, साख और प्रतिष्ठा प्राप्त है
व्यक्ति को अथवा जाति को दूर नही किया जाता. किसी सवर्ण हिन्दू जाति के व्यक्ति के हाथ से कोई बडा अपराध हुआ भी तो उस जाति को लक्ष्य बनाकर अत्याचार या उस जाति के घर-मकान जलाने के उदाहरण सुनाई नही पडते
, लेकिन परधर्मियों के छेडने पर अथवा अस्पृश्य जाति पर अत्याचार करने के लिए सवर्ण बहुजन हिन्दू जाति एकता की ताकत दिखती है. इससे स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दू धर्म सिर्फ सवर्ण हिन्दू जातियों का संवर्धन व रक्षा करने के लिए रचा हुआ है. अत: सवर्ण हिन्दू जातियों मे आ
íथक विषमता के बावजूद प्रत्येक जाति को धार्मिक, सामाजिक, समान दर्जा, साख और प्रतिष्ठा प्राप्त है और इसीलिए साधु-संत, महात्मा, समाज सुधारकों ने गत अनेक शतकों से गला फाडकर बताया कि वर्णभदे , जातीभेद, अस्पृश्यता हिन्दू धर्म पर लगा हुआ कलंक है. परंतु हिन्दू धर्म कलंकित है एसा एक भी सवर्ण हिन्दू जाति का व्यक्ति नहीं मानता. अस्पृश्य, हरिजन दलित के लोग कलंकित, अपवित्र हैं यह बात प्रत्येक सवर्ण हिन्दू मानता है. इसीलिए जिस हिन्दू धर्म को हम अपना धर्म मानते है, समझते है उस हिन्दू धर्म के हमारे धर्म बंधू हमें कलंकित, दूषित, अपवित्र, अस्पृश्य मानते है, जिससे परधर्मियो के मुस्लिम, ईसाई, पारसी, जैन, सिख धर्म समाज भी हमें कलंकित, दूषित, अपवित्र, अस्पृश्य समझकर हमारे साथ व्यवहार करना टालता है.

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