अस्पृशता हा हिंदू धर्मावरील कलंक नसून, तो आमच्या नरदेहावरील कलंक आहे. यासाठी, तो धुवून काढायचे पवित्र कार्य आमचे आम्हीच स्वीकारले आहे.- डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर | कभी हमारा अपना कोई धर्म था| उस धर्म कि धारा सुखी नाहि है| संतो ने उसे प्रवाहित रखा है. गुरु रविदास लिख गये है| धर्म के सार को| वे नया धर्म दे गये है| उस पर चलो| - बाबू जगजीवन राम

Saturday, February 15, 2014

सवर्ण हिन्दूओं के जाल मे फसे चमार जातियों के मुक्ति हेतु रविदासीया धर्म


सवर्ण हिन्दूओं के जाल मे फसे चमार जातियों के मुक्ति हेतु रविदासीया धर्म
जय रविदास ! जय भीम !! जय गुरुदेव !!!

उस समय राजा एवं प्रजा पर धर्म ग्रंथो का निर्वविाद अधिकार था. धर्मग्रंथो के अनुसार आचार अर्थात कानून एवं धार्मिक विधि अर्थात नतिकता मानी जाती थी. आज धर्माध धर्म सत्ता समाप्त हो गई है इसलिए धर्म निरपेक्ष लोकतंत्र व खुली अर्थव्यवस्था का आग्रह करते हुए सारा विश्व तानाशाही से लोकतंत्र की और एवं सत्तावाद से मानवतावाद की और एवं धर्माधता से संहिष्णु आध्यात्मिक, धार्मिकता की और बढ रहा है. भारतीय संविधान ही परिपूर्ण जीवनमुल्य के रूप में भारतीयों द्वारा स्वीकार करने से धर्मनिरपेक्ष भारतीय लोकतंत्र में जीवन व्यतीत करने वाले आधुनिक काल के लोगों के दिन प्रतिदिन दिनचर्या में धर्म का महत्व कम हो गया है.
ऐसा होते हुए भी भारत के सभी धर्मो के लोग धार्मिक, आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, पारंपारिक, रितिरिवाजों को जतन करने के नाम पर अपने धर्म संघ का शक्ति प्रदर्शन करते है और भारतीय लोकतंत्र का आधार ही संघ शक्ति अथवा संघटन पर आधारित होने से स्वधर्मियो के संघ शक्ति के बल पर राजनिति करते है और लोकतंत्र द्वारा प्रदान किए हुए सामाजिक, íथक, शैक्षणिक लाभ एवं आपातकाल में परधर्मियों से अपने धर्म बंधुओ को सुरक्षा दिलाने का प्रयत्न करते हैं. इसी से धर्म यह अफीम की गोली है, ऐसा कार्ल मार्क्‍स ने कहा था, लेकिन भारतीय धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र में धर्म को ही अधिक महत्व प्राप्त हाने से धर्म यह अफीम की गोली न रहते धारण करणे वाले समाज का सुरक्षा कवच है. यह कहना गलत न होगा.
संपूर्ण भारत में हिन्दू धर्म की कुल 4635 जातियों में से 3527 जातियां सवर्ण हिन्दू और 118 जातियां वर्णबाष्टद्धr(39) अस्पृश्यों की है. सामाजिक सुधार के सभी प्रयोग इसी जाति पर होते है, इसलिए धर्म, जाति-पाति से स्वयं को दूर रखना ही उचित होगा एसी सर्वसाधारण भावना समाज के मन में निर्माण हो गई है इसलिए मैं धर्म मानता नही. मैं फलां धर्म का हूं परंतु प्रवृत्ति से धार्मिक नही. मेरा जन्म फलां धर्मीय माता-पिता से हुआ है इसलिए वही मेरा धर्म है परंतु व्यक्तिगत जीवन में धर्म नाम की कथा मैं नही मानता. मैं सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन में धर्म के साथ-साथ आनेवाली रुढि और परंपराओं को मानता हूं. लेकिन देवी-देवता को नही मानता. ऐसी लोगो की धारणा होने के बावजूद प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी धार्मिक संघ से बंधा हुआ है. वही उसकी सामाजिक आवश्यकता भी है क्योंकि एक व्यक्ति को धर्म की आवश्यकता नही रहती, लेकिन व्यक्तियों के समूहों द्वारा निर्मित समाज को धर्म के सिवा दर्जा प्राप्त नही होता.
हिन्दू धर्म ने बहिष्कृत करने के बाद से विश्व के अस्तित्व में आए हुए किसी भी धर्म की पहचान न होते हुए व अस्पृश्य चांभार, ढोर, माला, मादिगा, मोची, चमार, रेगर, आदि समाज-मन में  दरुगधीयुक्त नामों को माथे पर अंकित कर पीढी-दर-पीढी गंदगी भरे काम करते हुए, अन्याय, अत्याचार चुपचाप सहन करते हुए गांव के बाहर रहते हुए किसी तरह जीवनयापन करते. हमारे समाज को महात्मा गांधी जी ने हरिजन नाम दिया. हरिजन का अर्थ है.. सवर्ण हिन्दूओं ने हजारो सालों से अन्याय, अत्याचार कर गांव के बाहर रखा. गंदगीभरे काम करने के लिए मजबुर किया. फिर भी स्वयं को हिन्दू कहलाते है. सवर्ण हिन्दू धर्म के चरणों में ईमानदारी से अपनी पीढियों को जन्म दिया और आज भी जन्म दे रहे है. उनकी रक्षा ष्टद्धr(39)हरिष्टद्धr(39) ही कर सकता है. इसलिए महात्मा गांधी ने हमें हरिजन कहा है.

भगवान रविदासजी महाराज के नाम पर हमारा चर्मकार समाज एक संघ हो सकता है


भगवान रविदासजी महाराज के नाम पर हमारा
चर्मकार समाज एक संघ हो सकता है

अब हमे दलित क्यों कहते हो? ऐसा पूछने पर बहिष्कृत अस्पृश्य गरीब दुर्बल है इसलिए दलित है. हमारा मुख्यमंत्री हुआ भी तो उसे दलित मुख्यमंत्री, उपप्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष, मंत्री, डॉक्टर, इंजीनिअर, उद्योगपती हुआ भी तो उसे दलित कहकर बडी चालाकी से हमारे समाज की गरीबी एवं दुर्बलता को आगे कर हमारे समाज का नामकरण दलित किया गया है. लेकिन साली, माली, कोली, भंडारी, लुहार, बढई, धोबी, कुम्हार जैसे और अन्य सवर्ण हिन्दू जाति हमसे भी अधिक गरीब है. फिर भी उन्हे दलित नही कहा जाता, कारण वे सवर्ण हिन्दू है. इसलिए उन्हे हिन्दूजन कहा जाता है. इसी से हमारे हिन्दूस्तान में हिन्दूओं को हिन्दूजन, मुसलमान को मुसलमान, बौद्ध को बौद्धजन कहा जाता है. पर हमारा चर्मकार समाज हिन्दू है तो हमें दलित हरिजन क्यों कहा जाता है?
हजारों सालों की परंपरा वाले भगवान मनु के सनातनी हिन्दू धर्म अर्थात ब्रह्माण, क्षेत्रीय, वैश्य, शूद्र और अति शूद्र अर्थात सतगुण, तमोगुण, रजोगुण, गुणहीन व अस्पृश्य यह गुण विशेष रखने वाले मनुष्य स्वभाव के अनुसार हिन्दू समाज का वर्गीकरण है. सवर्ण हिन्दू समाज की 3527 जातियां और बारह बलुतेदार है. पर वर्णबाष्टद्धr(39) अस्पृश्य समाज की 118 जातियां और आलुतेदार है. सवर्ण बलुतेदारों को उनके अधिकार का बलुत दिया जाता था. पर अस्पृश्य अलुतेदारों को भीक दी जाती थी. क्योंकि अस्पृश्यों का हिन्दू समाज मे समावेश किया भी गया फिर भी हिन्दू धर्मशास्त्राह के अनुसार केवल सवर्ण ही हिन्दू है इसलिए अस्पृश्यों को हरिजन, दलित समझकर भीख दी जाती थी.
शून्य की खोज भारत में हुई. शून्य से गणित की निर्मिती हुई. गणित का उपयोग कर पिन से लेकर परमाणु बम तक सभी खोज सर्वप्रथम परदेशी वैज्ञानिकों ने की. बुद्धि का स्रे रहे भारत में सिर्फ ग्रह तारों, कुंडली, हस्तरेखा और भविष्य बताने के लिए गणित का उपयोग किया गया. किसी एक वर्ण अथवा जाति ने नही परंतु समस्त हिन्दू समाज ने प्रगतिशील ज्ञान के दरवाजे धर्म, धर्मशास्त्र और पुराणों के आगे जाकर कुछ भी नही ऐसा समझकर बंद कर रखे थे. ऐसा होने के बावजूद इसी धर्म, धर्मशास्त्र के अनुसार हिन्दू धर्म की जिम्मेदारी जिन पर है वे ब्राह्मण, पंडीतों ने हिन्दू धर्म के नित नियम बताने के लिए ही अपनी काई पीढियां लगा दी और 8०० साल मुसलमानों की सत्ता और 15० साल अंग्रेजो की गुलामी के समय हिन्दू धर्म परम्पराओं का रक्षण किया तथा सवर्ण हिन्दू धर्म, वर्ण, जाति व्यवस्था, एक स्ांघ मजबूत होने की पुष्टि की.
संपूर्ण भारत में 118 जाितयों मे विभक्त, असंघठित अस्पृश्य समाज की अवस्था, मां खाना देती नहीं और बाप भीख मांगने देता नहीं, ऐसी हुई थी. मुसलमान, हिन्दू समझकर अस्पृश्यों पर अत्याचार करते थे और सवर्ण हिन्दू अस्पृश्य जाति का बताकर उन पर अत्याचार करते थे इससे मुस्लिम धर्म स्विकार कर राजाश्रय मिला तो मुसलमानों के अत्याचारों से मुक्ति मिलेगी और सवर्ण हिन्दू धर्मीयो के अत्याचारों से हमेशा के लिए छूटकारा मिलेगा इसी कारण हजारों अस्पृश्यों ने मुस्लिम धर्म स्वीकार किया. आगे अंग्रेजों के काल में वही अनुभव लेते हएॅ हजारों अस्पृश्यों ने क्रिष्टद्धr(155)न धर्म स्वीकार किया और आज भी अनेक अस्पृश्य लोग ईसाई धर्म का सहारा ले रहे हैं. उसे रोकना आवश्यक है इसलिए भारतीय संस्कृति के आधार सत परम्परा की विरासत और हिन्दू धर्म के ही एक अंग के रूप में उदयोन्मुख भगवान रविदासजी का आध्यात्मिक रविदासिया धर्म समस्त अस्पृश्य समाज में फैलाने सवर्ण हिन्दू धर्मायों को मदत का हाथ आगे कर हिन्दू धर्म के अस्पृश्यता का कलंक मिटाना चाहिए. उस समय संत महापुरुषों ने अस्पृश्यों के प्रति आस्था, प्रेम, करुणा और दया भाव व्यक्त कर अस्पृश्यों का कुछ अनुपात में धर्मातर को रोका अन्यथा संपूर्ण भारत के अस्पश्यों का मुस्लिम, क्रिष्टद्धr(155)न धर्म में धर्मातर होकर हिन्दू धर्म की अस्पृश्यता हमेश के लिए नष्ट हो गई होती. अस्पृश्यों के धर्मातर को रोकने संत, महापुरुषों ने अस्पृश्यता को लेकर दयाभाव व्यक्त कर अस्पश्यों दलितों के सामाजिक, शैक्षणिक, íथक उन्नति के लिए उल्लेखनीय कार्य किया. इसका इतिहास गवाह है परंतु अस्पृश्य जाति में जन्मे हुए और अस्पृश्यता की प्रत्यक्ष आंच का अनुभव लिए हुए गुरु रविदासजी महाराज और परमपूज्य डा. बाबासाहेब अम्बेडकर ने अस्पृश्यों को भारतीय समाज व्यवस्था में समान सामाजिक दर्जा और प्रतिष्ठा दिलाने के लिए हिन्दूवर्ण व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष कर नया इतिहास रचा.
ष्टद्धr(39)ष्टद्धr(39)चौदह सौ तेंतीस की माघ सुधी पंद्रास । दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री रविदास ।ष्टद्धr(39) काशी, बनारस, सीरमोवर्धनपूर में विक्रम सवंत 1433 (ई.स. 1377) को माघ शुद्ध पूर्णिमा दुखियों का कल्याण करने के लिए ही भगवान रविदासजी का जन्म अस्पृश्य जाति में हुआ. उस समय कठोर अस्पृश्यता ऊंच-नीच का पालन किया जाता था फिर भी गुरु रविदासजी का मानव कल्याणकारी उपदेश सुनकर राजा नागरमल, राणा वीर बघेल सिंह, सिकंदर लोधी, माहाराणा संग्राम सिंह, राजा चंद्रप्रताप, राजा अलावदी बादशाह, बिजली खान, राणा रतन सिंह, महाराणा कुं भाजी, महारानी झालीबाई, महान संत मीराबाई, बेबी कर्माबाई, बेबी भानमति, संत गोरखनाथ सहित सभी वर्गो के राजा - महाराजा गुरू रविदासजी के शिष्य हुए. गुरु रविदासजी ने कभी भी अपनी जाति नही छिपाई. ष्टद्धr(39)मेरी जातिोब्ोखियात चमारष्टद्धr(39) ऐसा डंके की चाटे पर कहते. गुरु रविदासजी महाराज ने समस्त चर्मकार समाज को गौरान्वित किया है. अस्पृश्य समाज हिन्दू धर्म में गिने जाने के बाद भी वह सवर्ण हिन्दू नहीं है यह सत्य बताते हुए गुरु रविदासजी कहते है. ष्टद्धr(39)चार बरण बेद से प्रकट। आदि जनम हमाराष्टद्धr(39) ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र यह चार वर्ण वेदों से प्रकट हुए है, ऐसा तुम कहते हो, लेकिन चर्मकार समाज उससे भी पहले वेदपूर्व काल का है. इससे सवर्ण हिन्दू धर्म और चर्मकार समाज का किसी भी रूप मे कोई भी संबंध नही है अर्थात चर्मकार समाज सवर्ण हिन्दू धर्म से पूरी तरह अलग है और चर्मकार समाज सवर्ण हिन्दू धर्म में समाविष्ट नहीं है, यह कहते हुए गुरू रविदासजी महाराज ने हिन्दू वर्ण व्यवस्था को पहला धक्का दिया. ष्टद्धr(39)ष्टद्धr(39)मेरी जाती कूट बांडता ढोर ढावंता, नितही बनारसी आस पासष्टद्धr(39)ष्टद्धr(39). काशी, बनारस के पास बस्ती में रहने वाले मेरी जाति के लोग हर रोज मरे हुए जानवरों को खींचकर ले जाने का काम करते हैं. ऐसा बताते हुए गुरू रविदासजी ने चर्मकार समाज का दुख विश्व के सामने लाकर खडा किया और उनके लगभग प्रत्येक दोहे में ष्टद्धr(39)कहे रविदास चमाराष्टद्धr(39) कहकर संपूर्ण भारत के गांव खेडे में बिखरे हुए चर्मकार समाज के हृदय में आदरयुक्त सम्मान, अपनेपन का स्थान निर्माण कर प्रेमानुबंध स्थापित किया, इसी कारण संपूर्ण भारत के चर्मकार समाज के आदर्श (आयडल) रहे भगवान रविदासजी महाराज के नाम पर हमारा चर्मकार समाज एक संघ हो सकता है, इसका विश्वास है.

आज अस्पृश्यता खत्म हो चुकी है? जय रविदास, जय भीम, जय गुरूदेव बोलो!


जय रविदास, जय भीम, जय गुरूदेव बोलो!

आज अस्पृश्यता खत्म हो चुकी है. अस्पृश्य समाज को भारतीय संविधान का संरक्षण प्राप्त है  फिर भी हमारे चर्मकार समाज का प्रतिनिधीत्व करने के लिए सरकारी आरक्षीत कोटा संभालने वाले सरकारी अधिकारी, विधायक, सांसद, राजनितिक पार्टयिों के नेंता, समाज के नेता केवल चमार बस्ति में आने के बाद चिल्लाते हुए दिखाई देते है. लेकिैन उनके सरकारी कार्यालयों, विधानसभा, उनकी पार्टी में चर्मकार समाज के बारे में एक शब्द भी नही बोलते है. वहा पर उन्हे जाती की शर्म आती है. इसीलिए संपूर्ण भारत के गांवकस्बो में चर्मकार समाज बडे पैमाने पर मतदाता होने के बावजूद उसे राष्ट्रीयस्तर पर कहीं भी अस्तित्व दिखाई नही देता है. हमारे समाज के सामाजिक, राजनतिक अस्तित्व को प्रस्तापित करने के लिए जाति मत छिपाओ अपनी जाति का नाम बिना शर्माए हुए बताओ और जय रविदास, जय भीम, जय गुरूदेव बोलो! 
गुरू रविदास महाराज कहते है ष्टद्धr(39)मेरी जाती भी ओछी पात भी ओछा, आछा कसब हमारा.ष्टद्धr(39)ष्टद्धr(39) उच्च दर्जे की मेरी चमार जाति है. मेरा आध्यात्मिकता का मार्ग भी ऊंचे दर्जे का है और मरे हुए जानवरों के बेकार चमडे से बहुउपयोगी सुंदर हस्तकला बनाने का ऊंचा कार्य मेरे समाज का कौशल्य कलाकरी भी ऊंचे दर्जे की ही है. यह कहकर चर्मकार जाति का, व्यवसाय का गौरव गुरु रविदासजी महाराज ने किया, परंतु हिन्दू धर्मशास्त्राहने अस्पृश्य ठहराने से कलंकित हुई जातियो को चिपककर रहना न पडे इसलिए ष्टद्धr(39)मेरी जाती कमीनी, पांती कमीनी ओछा जनम हमारा.ष्टद्धr(39) उच्च कुल मे जन्मे हमारे चर्मकार समाज को और हमारे व्यवसाय को अस्पृश्य जाति-पाति का कलंक लगाया है. यह कहकर गुरू रविदास कहते है, ष्टद्धr(39)जात पात के फेरे मही, उरझी रहयी सब लोग, मनुष्य को खात हयी रविदास जातका रोग.ष्टद्धr(39) जाति-पाति के चक्रव्यूह मे फंसने से रोग पीडित मृतवत स्वाभिमान शून्य हुए चर्मकार समाज में जाति-पाति का चक्रव्यूह तोडकर बाहर निकलने की ऊर्जा, शक्ति और स्वाभिमान जागृत होना चाहिए और जाति-पाति के विरुद्ध बगावत करने के लिए चर्मकार समाज में शक्ति निर्माण होने कूल, वर्ण बाष्टद्धr(39), अस्पृश्य, जाति-पाति का अंत करने के लिए स्वाभिमान चर्मकार समाज में निर्माण होना चाहिए इसलिए गुरू रविदासजी महाराज ने चमार जाति का अर्थात चर्मकार समाज का गौरवपूर्ण इतिहास बताया है.
जय रविदास, जय भीम, जय गुरूदेव बोलो!
गुरु रविदासजी कहते है, ष्टद्धr(39)जनम जात कू छाडि करि करनी जात प्रधान । इहयो चासा धर्म कहे रविदास बखान ।ष्टद्धr(39)ष्टद्धr(39) हमारे समाज के जन्म के साथ ही जोडे गऐ अस्पृश्य जाति का त्याग कर गुरू रविदासजी ने कथन किया हुआ सच्चे धर्म को स्वीकार करने के सिवाय चर्मकार समाज को सामाजिक प्रतिष्ठा प्रमुखता नही मिलेगी. आगे ष्टद्धr(39)बेगमपुरा शहर को नाउ।ष्टद्धr(39) अपनी रचना में गुरु रविदास कहते है, ष्टद्धr(39)कहि रविदास खलसा चमारा, जो हम सहरी सू मितू हमारा ।ष्टद्धr(39) हमारे साथ चिपके हुए चमार जाति का अंत कर स्वतंत्र रविदासी संस्कार के बेगमपुरा शहर, वतन अर्थात मानव के दुख मुक्ति का मार्ग रहे स्वतंत्र आध्यात्मिक रविदासिया धर्म स्वीकार कर मित्र साथी बनाने का आह्वान सभी चर्मकार बंधुओं से गरु रविदासजी महाराज करते हैं.

परपूज्य डा. बाबासाहेब अम्बेडकर का हमारे अस्पृश्य समाज मे जन्म हुआ


परपूज्य डा. बाबासाहेब अम्बेडकर का हमारे अस्पृश्य समाज मे जन्म हुआ

संपूर्ण िहदूस्तान में 11 सौ जाति और 2० करोड आबादी होने के बावजूद भी आए दिन चमारो पर अमानुषिक अत्याचार की खबरे देश के किसी न किसी भाग से आती ही रहती है. कही उनके घर जलाने की, कहां उनको गोली से उडाने की, कही उनके कत्ल की. कही उन्हे गाँव से भगा देने की, कही उनके महिलाओं के शील-हरण की, ऐसे अत्याचार जिनकी कल्पना भी आज के सभ्य समाज मे नही की जा सकती. और यह अत्याचार उनके उपर विधर्मियों द्वारा नही किए जाते, सवर्ण हिन्दू द्वारा ही किऐ जाते है. इसलिए गुरु रविदासजी कहते है ष्टद्धr(39)ष्टद्धr(39)सतसंगति मिली एहीये माधो जैसे मधूम मखीरा.ष्टद्धr(39)ष्टद्धr(39) जिस तरह छत्ते के इर्द-गिर्द मधुमाक्खियाँ एक संघ, एकजूट होकर रहती है. और शत्रु पर टूट पडती है, उसी तरह चांभार, ढोर,मला, मादिगा, मोची, चमार, परमार, समगर, रेगर, आदि चमारों की जातियों मे विभक्त समाज को ष्टद्धr(39)रविदासियाष्टद्धr(39) नाम छत्ते के आसपास एक संघ, एकजूट होना ही हमारे समाज की सूरक्षा है. क्यों की छत्ते पर पथ्थर मारने की हिम्मत कोई नही करता. शेर के नाम से ही डरता है. 2० करोड जनसंध्या की ताकत वाला ष्टद्धr(39)रविदासीयाष्टद्धr(39) नाम ही हमारे समाज की सरु क्षा है. शिर्फ जरुरत है, ष्टद्धr(39)रविदासीयाष्टद्धr(39) नाम पर सर्वस्व समíपत करने की.
14 अप्रेल 1891 को परपूज्य डा. बाबासाहेब अम्बेडकर का हमारे अस्पृश्य समाज मे जन्म हुआ. उन्होने उम्र के 32 वर्षो तक शिक्षा ली. ई.स. 1913 से 1923 इन दस सालों के काल मे इंग्लैंड, अमेरिका में जाकर समाजशास्त्र, मानवंश शास्त्र, इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र आदि विषयों का अध्ययन किया और.एम.ए. पीएच.डी. (कोलंबिया), डी. एससी. (लंदन), एलएल. डी.(कोलंबिया), डी. लिट. (उस्मानिया), बार-एट लॉ (लंदन) उपाधियां सम्पादित की. उस समय 1919 मे पहली बार समस्त भारत के सात करोड अस्पृश्यों को मतदान का अधिकार मिले, ऐसी मांग साउथबरो कमीशन के सामने की. उसके पष्टद्धr(155)ात 1931 मे इंग्लड में हुए गोलमेज अधिवेशन में अस्पृश्यों का प्रश्न सामाजिक न रहकर राजनीतिक है और राजकीय समस्या के रूप में उसका विचार किया जाना चाहिए - एसा स्पष्ट करते हुए समस्त अस्पृश्यों के दुख विश्व के सामने लाकार रखा. अस्पृश्य समाज स्वतंत्र वर्ग है, यद्यपि हिन्दू समाज में समावेश किया गया है फिर भी किसी भी रूप से हिन्दू समाज का एक जिव, घटक नही है. इसी वजह मुसलमान, ईसाई, सिख की तरह अस्पृश्यों को भी स्वतंत्र राजकीय सत्ता में योग्य हिस्सा मिलना चाहिए, यह मांग परमपूज्य डा. बाबासाहेब अम्बेडकर ने की. परमपूज्य डा. बाबासाहेब अम्बेडकर की इस मांग का महात्मा गांधी ने तीक्र विरोध किया और कहा, मुसलमानों को जो भी चाहिए वह दूंगा, ईसाई समाज को मैं आवश्यक जो भी हो दे दूंगा, युरोपियन अथवा एंग्लो इंडियन के हक को मैं न्याय करुंगा, सिखों की मांगो को बहाल करूंगा, लेकिन अस्पृश्य समाज को सूई की नोंक जितने अधिकार भी मैं मान्य नही करूंगा. भारत के 7 करोड अस्पृश्यों के राजकीय अधिकार व हक का इतना तिवृ विरोध महात्मा गांधी ने किया. जरा सोचिए ! इस आपातकालीन काल में यदि परमपूज्य डा. बाबासाहेब अम्बडे कर नही होते तो हम कहां होते?

हिन्दू धर्म के लोग हमें दलित, हरिजन समझकर दूर रखते है

समस्त अस्पृश्यों को स्वतंत्र धार्मिक पहचान, संघ शक्त और
भारतीय समाज व्यवस्था में समान सामाजिक दर्जा प्राप्त हो
परमपूज्य डा. बाबासाहेब अम्बेडकर ने महात्मा गांधी के विरोध को ताक पर रखते हुए गोलमेज अधिवेशन में अस्पृश्यों का पक्ष प्रभावी रूप से पेश किया और हिन्दू,मुसलमान, शिख, एंग्लो इंडियन की तरह बहिष्कृत अस्पृश्य जाति भी स्वतंत्र वर्ग है और इन सभी जाति हिन्दू धर्म के बाहर है. उसी तरह इन सभी जाति हिन्दू धर्म में समाविष्ट नही हैं, यह सिद्ध कर राजकीय सत्ता में क्रमानुसार हिन्दू और मुसलमान, सिख की तरह पददलितों को भी सत्ता में योग्य विभाजन और भारतीय संविधान में अस्पृश्यों के हित संबंधो की रक्षा करने की व्यवस्था की.
17 अगस्त 1932 को ब्रिटीश सरकार द्वारा प्रधानमंत्री रैम्से मैकडोनाल्ड ने जाति विषयक  प्रश्नों को निर्णय (कम्यूनल आवर्ड) घोषित किया और मुसलमान, ईसाई, सिख, एंग्लो इंडियन की तरह अस्पृश्य समाज के लिए स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र और इसके अलावा सर्वसाधरण मतदान क्षेत्र में
अस्पृश्यों को केवल आरक्षण संरक्षण दिलाना काफी नही
अस्पृश्यों को ज्यादा मत देने का अधिकार दिया. अस्पृश्यों को दिए गए स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र के विरोध में
2० सितंबर 1932 येरवडा, पुणे की जेल में महात्मा गांधी ने अनशन किया और उससे स्वतंत्र मतदाता क्षेत्र के बदले मध्यवर्ती कानून मंडल में अस्पृश्यों को 18 प्रतिशत आरक्षित जगज और आरक्षित जगह का तत्व सर्व जातियों में एकसमानता होकर रद्द होने तक अमल करें और इस तरह की शर्त पर परमपूज्य डा. बाबासाहेब अम्बेडकर और महात्मा गांधी के बीच करार हुआ. वही ऐतिहासिक पुणे करार है. पुणे करार के जरिये भारत के समस्त अस्पृश्यों के राजकीय, सामाजिक अधिकार प्रस्तावित कर परमपूज्य डा. बाबासाहेब अम्बेडकर ने हमारे जीने का मार्ग सुखमय किया.
अस्पृश्यों को केवल आरक्षण संरक्षण दिलाना काफी नही और सामाजिक, राजकीय, शैक्षणिक और आíथक उद्देश्य से शुरू हुए संगठन कालांतर से समाप्त होने अथवा बंट जाने से यह संगठन स्थायी रूप का न होने पर कोई भी व्यक्ति इस संगठन से हमेशा के लिए बंधा नहीं रहता. धार्मिक संघ के प्रत्येक व्यक्ति का एक दूसरे से भावनात्मक अनुबंध जुडे होते है, इसलिए धर्मसंघ के प्रत्येक व्यक्ति धर्म संघ से हमेशा के लिए जुड जाते है लेकिन अस्पृश्यों का अपना स्वतंत्र धर्म नहीं. धर्म, संघ, शक्ति न होने से जातियों में विभक्त अस्पृश्यों पर हमेशा अन्याय, अत्याचार होते रहेंगे. यह पहचान कर भारत के समस्त अस्पृश्यों को स्वतंत्र धार्मिक पहचान, संघ शक्त और भारतीय समाज व्यवस्था में समान सामाजिक दर्जा प्राप्त हो इसलिए परमपूज्य डा. बाबासाहेब अम्बेडकर ने 13 अक्टूबर 1935 को ऐवले में धर्मातर की घोषणा की और कहा, अस्पृश्य हिन्दू का दाग लेकर मैं जन्मा, परंतु यह मेरे हाथ में नही था, लेकिन हिन्दू कहलाकर मै मरना नहीं चाहता और उसके अनुसार 14 अक्टूबर 1956 को नागपूर में बौद्ध धर्म की दीक्षा ली और लाखों जनसमूह को बौद्ध धर्म की दीक्षा दी और समस्त अस्पृश्यों के विश्व के बौद्ध धर्मियों से प्रेमानुबंध स्थापित किया.
इस महान बौद्ध धर्म क्रांति का हमने अपने अज्ञान से, जाति अहंकार से हम सहभागी न हो सके और इसीलिए हमने बौद्ध धर्म को स्वीकार नही किया. बौद्ध धर्म के लोग हमें अपना नहीं समझते. हम मुस्लिम, ईसाई, सिख, जैन धर्म के न होने से उस धर्म के लोग हमें अपना नहीं समझते, जिस हिन्दू धर्म को हमने अपना धर्म माना उस हिन्दू धर्म के लोग हमें दलित, हरिजन समझकर दूर रखते है. जिस जाति के हम है उस चर्मकार समाज में असंगठित 11 सौ जातियां है और प्रत्येक जाति अपना अलगपन जतन कर सवर्ण हिन्दू लोगों की शाबासी लेने चमारपन का जतन करते हिन्दू धर्म के पांव तले इमानदारी से अपनी पीढियों को जन्म दे रहे है, इसलिए चर्मकार समाज में संघशक्ति का अभाव है. हमारा कोई रखवाला नहीं और हमें चुपचाप अत्याचार सहन करना हमारे नसीब में ही है, ऐसी भावना अपने चर्मकार समाज मे बनी हुई है.
अस्पृश्य, हरिजन, दलित की उपाधि से अपमानित हुए अपना समाज अपनी जाति का नाम बताते हुए शर्माता, परंतु हिन्दू धर्म का होने से मैं हिन्दू हूं, ऐसा अभिमान से बताता है. दूसरी और सवर्ण हिन्दू अपनी जाति का नाम खुलकर बाताते है, जो सच्चा हिन्दू और अपनी जाति का नाम बताने में संकोच करता है, वह झूठा हिन्दू है.
सच्चे हिन्दू धर्म में समाविष्ट सवर्ण हिन्दू जातियों को समाज में समान सामाजिक दर्जा प्राप्त है, इसलिए सवर्ण हिन्दू जाति उपजाति के लोग एक वर्तुल में एक संघ होकर रहते है. अज्ञान,अशिक्षा, गरीबी, गंदे रहन-सहन होने से उनमें भेद नही किया जाता. एक विशिष्ट जाति व्यवसाय से उस
प्रत्येक जाति को धार्मिक, सामाजिक,
समान दर्जा
, साख और प्रतिष्ठा प्राप्त है
व्यक्ति को अथवा जाति को दूर नही किया जाता. किसी सवर्ण हिन्दू जाति के व्यक्ति के हाथ से कोई बडा अपराध हुआ भी तो उस जाति को लक्ष्य बनाकर अत्याचार या उस जाति के घर-मकान जलाने के उदाहरण सुनाई नही पडते
, लेकिन परधर्मियों के छेडने पर अथवा अस्पृश्य जाति पर अत्याचार करने के लिए सवर्ण बहुजन हिन्दू जाति एकता की ताकत दिखती है. इससे स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दू धर्म सिर्फ सवर्ण हिन्दू जातियों का संवर्धन व रक्षा करने के लिए रचा हुआ है. अत: सवर्ण हिन्दू जातियों मे आ
íथक विषमता के बावजूद प्रत्येक जाति को धार्मिक, सामाजिक, समान दर्जा, साख और प्रतिष्ठा प्राप्त है और इसीलिए साधु-संत, महात्मा, समाज सुधारकों ने गत अनेक शतकों से गला फाडकर बताया कि वर्णभदे , जातीभेद, अस्पृश्यता हिन्दू धर्म पर लगा हुआ कलंक है. परंतु हिन्दू धर्म कलंकित है एसा एक भी सवर्ण हिन्दू जाति का व्यक्ति नहीं मानता. अस्पृश्य, हरिजन दलित के लोग कलंकित, अपवित्र हैं यह बात प्रत्येक सवर्ण हिन्दू मानता है. इसीलिए जिस हिन्दू धर्म को हम अपना धर्म मानते है, समझते है उस हिन्दू धर्म के हमारे धर्म बंधू हमें कलंकित, दूषित, अपवित्र, अस्पृश्य मानते है, जिससे परधर्मियो के मुस्लिम, ईसाई, पारसी, जैन, सिख धर्म समाज भी हमें कलंकित, दूषित, अपवित्र, अस्पृश्य समझकर हमारे साथ व्यवहार करना टालता है.

हमें अपनी जाति का अभिमान होना चाहिए


हमें अपनी जाति का अभिमान होना चाहिए
जय रविदास ! जय भीम !! जय गुरुदेव !!!,


झूठे हिन्दू धर्म में समाविष्ट बहिष्कृत, अस्पृश्य, हरिजन, दलित जाति कलंकित, अपवित्र है, ऐसा मानकर हिन्दू धर्मशास्त्राह ने मान्यता देने से उन जातियों को अप्रतिष्ठा प्राप्त हुई है. हिन्दू धर्म के सबसे निचलेस्तर पर समझे जाने वाले हमारे समाज का जीवित रहने का अधिकार हिन्दू धर्मशास्त्राह ने छीन लिया है. आज हमारी जाति को मिल रही सहूलियतें, संवैधानिक अधिकार भारतीय संविधान ने दिए है. हिन्दू धर्मग्रंथमें सुधार (अमेंटमेंट) कर हमें अधिकार नहीं दिए, इसलिए आज भी हम हिन्दू धर्मशास्त्राह के अनुसार कलंकित, अपवित्र ठहरते है. हमारे समाज की यह अवस्था किसी भी एक व्यक्ति या समाज ने नही की, जिस हिन्दू धर्म को हम अपना धर्म समझते है उस धर्म के धर्मग्रंथों द्वारा विहित तत्व नियम, कानून से हमारे समाज की यह अवस्था हुई है और हिन्दू धर्म के नियम, कानून, सानातनी होने से वे बदले भी नही जाते. हमारी इस अवस्था के लिए सवर्ण बहुजन हिन्दू जाति का व्यक्ति या समाज जिम्मेदार नहीं है, वे तो केवल हिन्दू धर्मशाधिं में विहित नियमों का पालन कर रहे है.
हम जब तक हिन्दू धर्म से जुडे रहेंगे तब तक हिन्दू धर्मशास्त्राह के नियम व कानून के अनुसार किसी व्यक्ति या समाज की इच्छा रहे न रहे हिन्दू के हमारे कलंकित दर्जे अपवित्र ही रहेंगे और इससे धार्मिक, सामाजिक हक के लिए हिन्दू धार्मियों से हमेशा लडते रहना होगा. दलितों के ऊपर अत्याचार का मूल कारण दलितों ने धार्मिक सामाजिक हक के लिए किए संघर्ष व उससे दलित और सवर्ण हिन्दू जाति के बीच हुई कटुता है और इसलिए स्वतंत्र रविदासीया धर्म स्वीकार करने से झगडे के लिए कोई कारण ही बाकी नही रहेगा.
विश्व के किसी भी धर्म में किसी भी व्यक्ति अथवा समाज को प्रवेश लेने की सहूलियत है, परंतु हिन्दू धर्म में प्रवेश लेने के लिए सवर्ण हिन्दू माता के पेटे से ही जन्म लेना पडता है. धर्म दीक्षा लेकर अथवा धर्मातर कर हिन्दू धर्म में प्रवेश नही लिया जा सकता अर्थात अस्पृश्यों को सवर्ण हिन्दू नही बनाया जा सकता. यह सूर्य प्रकाश की तरह इसके सत्य को नजर अंदाज करते हुये, साधु, संत, महात्मा, समाज सुधारकों ने हिन्दू धर्म से पूर्णरूप से अलग हुए परंतु जीनका स्वतंत्र धर्म नही है, यह जानते हुय भी अस्पृश्य समाज को समाजसुधारक का केंद्र बनाकर हिन्दू धर्म से जोडकर हिन्दू धर्म तुम्हारा ही है. हमें अपनी जाति का अभिमान होना चाहिए गर्व से कहो हम हिन्दू है, इस प्रकार के जाति भेद अस्पृश्यता नष्ट करने की बडी-बडी बातें कर हिन्दू धर्म के वर्तुल के बाहर रखने हिन्दत्३ व की मोहर लगाकर जैसे है वैसी ही स्थिति में छोड दिया. इसी धरती पर आजकल के हमारे समाज के नेता, लेखक, चिंतक, बामसेफ वाले काम कर रहे है.
परमपूज्य डा. बाबासाहेब अम्बेडकर ने अपने राजनीतिक सफर की शुरूआत करते समय 15 ऑगस्त 1936 को स्वतंत्र मजदूर पक्ष की स्थापना की. उस पार्टी से मुंबई मे चुनाव भी लडे, परंतु उसके बाद ब्रिटिश सरकार के स्टैनली कमेटी के सामने गवाही देते समय तुम अस्पृश्यों के नेता कैसे? तुम्हारी पार्टी तो सभी जाति धर्मियों की है, ऐसी हरकत लिए जाने से उसी क्षण परमपूज्य डा. बाबासाहेब अम्बेडकर ने मजदूर पार्टी को बर्खास्त किया और 2० जूलै 1942 नागपूर मे  शेडय़ूल्डकास्ट फेडरेश नाम का बहिष्कृत अस्पृश्य वर्ग का स्वतंत्र राजकीय पार्टी स्थापित कर देशभर के तमाम अस्पृश्य समाज की व्यथा स्टेनली कमेटी के सामने रखी. आज भी 2० करोड अस्पृश्य समाज हिन्दू धर्म के पांव के पास हरिजन दलित के रूप मे सवर्ण हिन्दू बहुजन समाज के दबाव तले जी रहा है. और हमारे समाज के नेता, लेखक, चिंतक, बामसेफ वाले अस्पृश्य समाज की ओर पीठ दिखाकर सवर्ण हिन्दू बहुजन समाज के लिए जी-जान से काम कर रहे हैं और यह जानते हुए कि, इससे अस्पृश्य समाज को कोईभी लाभ नही होगा. ब्राह्मणवाद, मनूवाद, वर्णजात और देवी देवताओं पर टिका टिपण्णी करने मे ही गर्व महसस्३ो कर रहे है. यह हमारे समाज का दुर्भाग्य नही तो ओर क्या ह?
ब्राह्मणवाद, मनुवाद, जातीवाद, वर्ण, जाति, देवी, देवता श्रद्धा-अंधश्रद्धा यह हिन्दूस्तान के चमारों की समस्या नही है. प्रचलीत कानून, अंतर जातिय विवाहों के चलते भविष्य मे यह खलास नही हुयी तो भी इसकी तिवृता जरुर कम हो जाएगी. चमारों की बडी समस्या है, उनका अपना कोई धर्म नही है. यही कारन है की संपूर्ण हिन्दूस्तान मे 11 सौ जाति 2० करोड से भी ज्यादा जनसंख्या, व्यवसायीक समानता, एकजैसी पहचान होने के बावजूद भी चमार जाति एक संघ नही है.
दूसरी और सवर्ण हिन्दू समाज अनेक वर्ण जातियों मे बटा हुआ उपरी तौर पर हमे दिखाई देता है. वे अनेक पक्ष पार्टीयों के प्रमुख बने बैठे है. एक दूसरे के उपर किचड उछालते नही थकते. परंतु हिन्दू धर्म के नाम पर एक संघ हो जाते है. और देवि देवताओं के उत्सवों में अपनी ताकत दिखाते है. मुस्लिम समाज मे भी अनेक पंथ जाति है. मुसलमान सभी पक्ष पार्टयिों मे शामील है. फिर भी मुस्लिम धर्म के नाम पर मस्जिदो में एक हो जाते है. इसाईयों मे अनेक पंथ जाति है. वे सभी पक्ष पार्टयिों में शामील है. परंतु इसाई धर्म के नाम पर चचरे मे एक संघ हो जाते है.
अभि-अभि तक अस्पृशों का ही भाग रहे बौद्ध समाज अनेक पक्ष पार्टयिों मे शामील है. बौद्ध धर्म के नाम पर बौद्ध विहारों मे एक संघ हो जाते है. परंतु चमारों का अपना कोई धर्म नही है. ना कोई मंदिर, ना कोई मस्जिद , ना कोई चर्च है. व तो दूसरों के धर्म को ही अपना धर्म मानते है. दूसरों के मंदिरो मे ही जाते है. तो सोचिये 11 सौ जातियों मे बिखरे चमार एक संघ कैसे और कहां पर होते. यही कारण है कि भारत के इतिहास मे सदीयों से करोडो अस्पृश्यों के साथ जानवरों जैसा बल्की उससे भी बदतर व्यवहार किया जाता रहा उन्होने कभी विद्रोह नही किया. इसलिए जिस प्रकार हिन्दू - मंदीर, मुस्लिम - मसजिद, सिख - गुरूद्वारा, इसाई - चर्च, बौद्ध - बौद्ध विहार गांव-कस्बों मे अपने धर्म की धरोहर निर्माण करने मे जि जान लगा देते है. उसी प्रकार हमे भी प्रत्येक गांव-कस्बों के अपनी चमार बस्तियोंमे रविदास मंदिर और तहसिल स्तर पर रविदास भवन बनाने के लिए हमे अपना सर्वस्व अर्पण करना होगा. तभी हमारी आगामी पिढीया रविदासीया धर्म के नाम पर रविदास मंदीरों मे एक संघ होगी.

आदर्श समाज निर्माण करने के लिए रविदासीया धर्म को स्वीकार करें.



चांभार, ढोर, माला, मादिगा, मोची, चमार, परमार, समगर,
रेगर आदि व अन्य अस्पृश्य जातियों को क्या
सवर्ण हिन्दू का दर्जा मिलेगा
?
संपूर्ण भारत में व्यापारी समाज के रूप में पहचान प्राप्त हमारे चर्मकार सामज की जनसंख्या 2० करोड है. इतनी बडी राजनीतिक, सामाजिक ताकत होने के बावजूद केवल स्वतंत्र धर्म न होने से हमारे व्यवसाय को भी अप्रतिष्ठा प्राप्त हुई है. क्रिष्टद्धr(155)न धर्म का व्यक्ति जब कोई जूतों की दुकान लगाता है तब उसे क्रिष्टद्धr(155)न के जूतो की दुकान माना जाता है. चमार के जूतों की दुकान नही कहते. मुसलमान चमडे का व्यवसाय करता है, तब भी उसे चमार नहीं कहते, परंतु हमारे चर्मकार बंधु ने होटल व्यवसाय भी किया तो भी उसे चमार का होटल कहा जाता है और चमार जाति के नाम से उसका होटल व्यवसाय नहीं चलता, इसलिए जाति छिपाकर किसी तरह व्यवसाय करना पडता है, परंतु सामाजिक, शैक्षणिक, íथक, राजकीय दृष्टि से स्वसम्पन्न हमारे ही चर्मकार समाज के कुछ समाज बंधुओ के अनुसार हम हिन्दू है और हिन्दू धर्म से अस्पृश्यता काल बाष्टद्धr(39) हो गई है. जाति, ऊंच नीचता समाप्त हो गई है. अंतरजातीय विवाह हो रहे है. सवर्ण हिन्दूओं के साथ हम उनकी पंगत में बैठते है. जातीय ऊंच नीचता यह मूल प्रश्न बचा ही नही, इसलिए चर्मकार समाज को अलग धर्म का विचार करने की आवश्यकता नही है. यदि यह मान भी लिया जाए और हिन्दू धर्म वास्तव में बदला है, अस्पृश्यों को हिन्दू धर्म में समा लेने की प्रक्रिया शुरू हो गई है तो प्रसन्नता है, परंतु प्रश्न यह है कि चांभार, ढोर, माला, मादिगा, मोची, चमार, परमार, समगर, रेगर आदि व अन्य अस्पृश्य जातियों को क्या सवर्ण हिन्दू का दर्जा मिलेगा? नहीं ! क्योंकि भारतीय समाज व्यवस्था में व्यक्ति या समाज की केवल शैक्षणिक, íथक और राजकीय क्षेत्र में प्रगती होने से उस व्यक्ति या समाज को सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं मिलती पर जिस समाज के हम घटक है, उस समाज में हमारे जाति का दर्जा क्या है, इस पर उस व्यक्ति या समाज की प्रतिष्ठा निभर्र करती है.
दु:ख इसी बात का है कि दलित, हरिजन यह पहचांन अस्पृश्य हिन्दू का दाग दुर्भाग्यवश हमारे माता-पिता से वंश परम्परा से हमे मिला है क्योंकि उस समय धर्म परिवर्तन करना उन्हे संभव नहीं था. प्रश्न यह है कि धर्म परिवर्तन हमारा मूलभूत अधिकार होने से भी उसी नीच, कलंकित, अस्पृश्य जाति की विरासत क्या हम अपने बच्चों को देने वाले है? यदि नहीं, तो झूठे हिन्दूत्व का बुरखा ओढकर जाति छिपाकर जीने से अच्छा है एकसाथ संपूर्ण भारत के समाज बंधुओं को एक सूत्र में बांधकर धार्मिक समानता और सामाजिक राजकीय और शक्तिमान आदर्श समाज निर्माण करने के लिए रविदासीया धर्म को स्वीकार करें.
संपूर्ण भारत के हमारे रविदासिया समाज की राजकीय ताकत हमारे चर्मकार समाज की ताकद बढाने हेतु पंजाब के चर्मकारों ने पहल कर भारत के समस्त चर्मकार समाज को एकसूत्र में बांधकर स्वतंत्र धार्मिक आध्यात्मिक पहचान निर्माण करने के प्रयत्न के एक भाग के रूप में डेरा सच्चखण्ड बल्ला इस धार्मिक संघटन के प्रमुख सतगुरू निरंजनदासजी महाराज और संत सुिरदरदास बाबाजी महाराज व चर्मकार समाज के प्रमुख संतो की उपस्थिती में सीरगोवर्धनपुर बनारस इस गुरू रविदास जन्मस्थली पर 633 वां गुरू रविदास जयंती के अवसर पर पांच लाख जन समुदास की साक्षी से हेलिकेप्टर से पुष्प वर्षा करते स्वतंत्र रविदासिया धर्म की घोषणा कर धर्मचक्र गतिमान किया. इसी धर्म क्रांति के भाग के रूप में गुरू रविदास इंटरनेशनल ऑर्गनायजेशन फारॅ ष्टद्धr(39)ूमन राइटसि इस वैश्विक दर्जा प्राप्त भारतीय चर्मकारों की संस्था ने 14 नवंबर 2००3 मे रविदासिया समाज की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग पहचान दर्शानेवाले लोगो (बोध चिन्ह) ष्टद्धr(39)हरिष्टद्धr(39) रजिस्टर किया है.
प. पू.डा. बाबासाहेब आम्बेडकर द्वारा बौद्ध धर्म क्रांति के
हम अज्ञानी
, जाति, अहंकार से सहभागी न हो सके.
भारत को आजादी मिलने के बाद यह दूसरी धम्र क्रांति है. प. पू.डा. बाबासाहेब आम्बेडकर द्वारा बौद्ध धर्म क्रांति के हम अज्ञानी, जाति, अहंकार से सहभागी न हो सके. अब हमारे श्रद्धा के आराध्य भगवान रविदास व उनके रविदासिया धर्म क्रांति का सहभागी बनकर 2० करोड रविदासिया समाज भाईयों का एक संघ ताकत की सूरक्षा कवच संपूर्ण भारत में गांव कस्बो में बिखरे हुए अल्पसंख्यक समाज भाईयों को ताकत दें. गुरू रविदासजी का आध्यात्मिक वारसा प्राप्त हमारा व्यापारी समाज है. इससे हम जैसे है वैसे जहां है वहां की मिट्टी, समाज, संस्कृति व आपसी एकरूपता दिखाकर रविदासिया समाज भाईयों की अलग पहचान निर्माण करें.

प्रश्न आरक्षण का?



प्रश्न आरक्षण का?
प्रश्न आरक्षण का?
गुरू रविदासीजी डंके की चोट पर कहते है मेरी जाति बिखियात चमार
1931 में पहली बार उस समय के जनगणना आयुक्त जे. एन. हटन ने संपूर्ण भारत के अस्पृश्य जाति की जनगणना की और भारत में 118 अस्पृश्य जातियां है व यह सभी जाति हिन्दू धर्म के बाहर की हैं, इसलिए इन जातियों को बहिष्कृत जाति कहा गया है. उस समय के प्रधानमंत्री रैम्से मैक्डोनाल्ड ने हिन्दू मुसलमान, शिख,एंग्लो इंडियन उसी तरह बहिष्कृत जाती स्वतंत्र वर्ग है. और यह सभी जातीयां हिन्दू धर्म में समाविष्ट नहीं होने का सुनिष्टिद्धr(155)त कर उनकी एक सूची तैयार की. उसी सूची में समाविष्ट जातियों को ही अनुसूचित जाति कहा जाता है. इसी के आधार पर भारत सरकार द्वारा अनुसूचित जाति कानून 1935 के अनुसार कुछ सहूलियतें दी गई. उसी आधार पर भारत सरकार ने अनुसूचित जाति अध्यादेश 1936 जारी कर आरक्षण सहूलियतें दि गई. आगे उसी अनुसूचित जाति की सूची की जाति मानकर 1936 के अध्यादेश में थोडी हेरफेर कर अनुसूचित जाति अध्यादेश 195० जारी कर आज जो हमें आरक्षण सहूलियतें दी गई है. परमपूज्य डा. बाबासाहेब आम्बेडकर को 1931 की गोलमेज परिषद व उसके बाद 1932 पुणे महात्मा गांधी के अनशनकाल में अस्पृश्यों को आरक्षण सहूलियतें मिलने के लिए बहुत कष्ट झेलने पडे और मिली हुई आरक्षण सहूलियतें कायम रखने के लिए संविधान समिती ने मे बडी कसरत करनी पडी. इससे हमें आज आरक्षण का लाभ मिल रहा है.
यह आरक्षण बडी मुसीबतो , अत्यंत दूखों और बेशुमार
विरोधियों का मुकाबला करके मैने तुम्हारे लिए प्राप्त किया है
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अनुसूचित जाति के नागरीक हिन्दू धर्म के है. इसलिए उनको आरक्षण मिलता है, हिन्दू धर्म का त्याग कर बौद्ध धर्मातर करने वालों का आरक्षण बंद हो जाएगा, ऐसा डर व्यक्त करने वालों को नागपूर 14 अक्कूबर 1956 बौद्ध धर्मातर की जन सभा को संबोधीत करते हुये प.पू. डॉ. बाबासाहेब आम्बेडकर जी ने मुहतोड जवाब देते हुये कहा था.. ष्टद्धr(39)ष्टद्धr(39)यह आरक्षण बडी मुसीबतो , अत्यंत दूखों और बेशुमार विरोधियों का मुकाबला करके मैने तुम्हारे लिए प्राप्त किया है. दलितो का आरक्षण मेरे कोट की जेब मे है.ष्टद्धr(39)ष्टद्धr(39) डा. बाबासाहब के कोट की जेब अर्थात हिन्दू, बौद्ध और सिख धर्म मे अनुसूचित जातियां होती है. ऐसा भारतीय संविधान में प्रावधान है. इसलिए भारतीय जनगणना के परिवार पत्रक में इसका उल्लेख स्पष्ट तौर पर किया जाता है. ता की अनुसूचित जाति के नागरीकों को जनगणना के परिवार पत्रक 6 नंबर कालम मे बौद्ध धर्म और 7 नंबर कालम मे अपनी अनुसूचित जाति, चांभार, महार, ढोर, मांग, माला, मादिगा, मोची, चमार, परमार, समगर, रेगर आदी आप जिस जाति के है वह जाति का नाम रजिस्टर करने में सुविधा प्राप्त हो.
अर्थात हिन्दू धर्म का त्याग कर बौद्ध धर्मातर करने के बाद भी अनुसूचित जाति के नागरिक अपनी जाति लिख सकते है. और जाति प्रमाणपत्र भी प्राप्त कर सकते है. और जाति प्रमाणपत्र हमारे पास है तो जाति के नाम पर मिलने वाला आरक्षण मिलता ही रहेगा. मतलब धर्मातर करने से आरक्षण बंद नही होगा. उल्टे आज अगर 21 करोड से भी ज्यादा अनुसूचित जाति के नागरीको की बौद्ध धर्म के नाम से स्वतंत्र गणना होती, तो हमारी राजनितिक ताकत संपूर्ण भारत मे बडजाती थी और उतनी ही हिन्दू धर्म की संख्या घट जाती थी, क्योंकि हम हिन्दू धर्म लिखते है. हिन्दू धर्म की संख्या बड जाने से उनकी राजनीतीक ताकत भी बड जाती है. और हमारे ही ताकत के बल पर हमारे ही लोगों के उपर सवर्ण हिन्दूओं द्वारा अत्याचार किया जाते है. वह बंद हो जाते. यही है बाबासाहेब के कोट की जेब का सरल अर्थ जो मेरे समज मे आता है.
गुरू रविदासीजी डंके की चोट पर कहते है ष्टद्धr(39)मेरी जाति बिखियात चमार /अर्थात ष्टद्धr(39)रविदासीयाष्टद्धr(39) धर्म संस्थापक हमारे चमार जाति के है. ष्टद्धr(39)रविदासीयाष्टद्धr(39) धर्मातर करने वाले हम लोग भी चमार जाती के ही है. अर्थात रविदासीया धर्म अनुसूचीत जाति के चमारो का ही है. मतलब हिन्दू धर्म का त्याग कर ष्टद्धr(39)रविदासीयाष्टद्धr(39) धर्मातर करने से किसी भी अनुसूचित जाति का आरक्षण बंद नही हो सकता. यही बात को ध्यान मे रखते हुए, गुरु रविदास धर्म सभा के नेतृत्व मे फरवरी 211 को मुंबई मे अनुसूचित जाति के चमार समाज को ष्टद्धr(39)रविदासीयाष्टद्धr(39) इस नाम से स्वतंत्र धर्म भारतीय जनगणना मे रजिस्टर करने हेतू, इस मांग को लेकर हमारे नेताओं का प्रतिनीधी मंडल केंद्र सरकार के जनगणना संचालक श्री. रंजीत देओलजी से मिला हमारे नेताओं से विस्तृत चर्चा होने के बाद ष्टद्धr(39)रविदासीयाष्टद्धr(39) धर्म यह हिन्दू धर्म का ही पंथ मानकर श्री रंजीत देओलजी से हमारी इस मांग को समर्थन करते हुये जनगणना के परिवार पत्रक मे धर्म ष्टद्धr(39)रविदासीयाष्टद्धr(39) और अपनी अनुसूचीत जाति लिखने की आनुमती दे दी. उसके बाद गुरू रविदास धर्म सभा के सभि कार्यकर्ता ओ ने मिलकर िपट्र मेडीया, इलेक्ट्रॉनिक मेडीया, के माध्यम से खुब प्रचार प्रसार किया और महाराष्ट्र के हजारो महारे भाईयों ने भारतीय जनगणना 211 मे अपना धर्म हिन्दू ना लिखते हुऐ रविदासिया(39) लिखकर नया इतिहार रचा.

प्रश्न देवी देवतोओं का?



प्रश्न देवी देवतोओं का?

Achutrao Bhiyite, जय रविदास ! जय भीम !! जय गुरुदेव !!!, रविदासिया सर्वश्रेष्ठ धर्म

प्रश्न देवी देवतोओं का

समाज केवल विचारों पर जीवित नही रहता, उसे भावना के पोषण की जरूरत रहती है. दव्२ोा१, देवता, आत्मा, परमात्मा, परब्रह्म, मे समाज की भावना जुडी हई है. इसलिए ईश्वर को नकारकर लोगों का बुद्धिभेद करना संभव है, परतु विश्व द्वारा मान्य की हुई ईश्वर की संकल्पना मनुष्य के मन से नष्ट करना केवल असंभव है. और इसी वजह अध्यात्म, श्रद्धा, उपासना, रूढि - परम्परा, देवी - देवता, कुल देवता हमारे ही पूर्वजों ने निर्माण की हुई भारतीय संस्कृति की विरासत है. इसका किसी भी अर्थ से हिन्दू धर्म से संबंध नही है. हिन्दू धर्म ईश्वर नाम के तत्व पर खडा है, ऐसा कुछ लोग मानते है, परंतु हिन्दू धर्म की पहचान वर्ण एवं जाति व्यवस्था है. हिन्दू धर्म का होने से किसी ना किसी वर्ण या जाति का होना आवश्यक है. कौन से देवता की पूजा करते है, यह महत्वपूर्ण नहीं मतलब हिन्दू धर्म की पहचान उस व्यक्ति की जाति से होती है, किसी देवता की पूजा से नही अर्थात जाति हिन्दू धर्म का मुख्य तत्व है. जिस तरह एक हिन्दू व्यक्ति के मुस्लिम दरगाह मे जाने, पूजा करने, मन्नत मांगने से तो वह मुसलमान नही हो जाता. उसी तरह एक मुस्लिम व्यक्ति के अपने घर में भक्तिभाव गणेश जी की प्रतिष्ठापना कर पूजा पाठ करने से वह भी हिन्दू नही हो जाता. इस हिन्दूस्तान में जन्मे हुए प्रत्येक व्यक्ति को भारतीय संस्कृति श्रद्धा, देवी - देवता, कुल देवता की यात्रा ओर वारकरी जैसे भरे हुए है. इन्हें किसी भी धर्म की चौखट में बांधकर नही रखा जा सकता, लेकिन भारत में जो भी निर्माण हुआ वह हमारा ही है, ऐसा कहने की हिन्दू धर्मियो की पुरानी आदत है. इस मामले में संत ज्ञानेश्वर महाराज का उदाहरण उचित होगा - ष्टद्धr(39)देव ते कल्पित शास्त्र शाब्दीक । पुराणे सकळिक बाष्कलीक ॥1॥ ज्ञानेश्वर गाथ साखरे पत 547ष्टद्धr(39), देवता काल्पनिक है. शास्त्र शाब्दिक हैं और सभी पुराण वाचिक है. यह सत्य बताते और इसलिए ज्ञानेश्वर महाराज और उनके भाइयों को जीते हुए हिन्दू वर्ण व्यवस्था में स्थान नहीं मिला, परंतु मृत्यु के पष्टद्धr(155)ात वे हमारे ही है, संत तुकाराम महाराज जब जीवित थे, तब उनकी गाथा को इंद्रायणी नदी में डुबाया और मृत्यु पष्टद्धr(155)ात वे भी हमारे ही है, सभी संत हमारे ही है, ऐसा कहना, लेकिन उन्हें स्वीकार नहीं करना. सभी अस्पृश्य समाज हमारा हिन्दू है, ऐसा सिर्फ कहते रहना, परंतु उन्हें स्वीकार नहीं करना, कभी भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार कहना तो भी हाजी मलंग को श्री मलंग कहना यह हिन्दू धìमयों की परम्परा है. संत एकनाथ महाराज कहते हैं, ष्टद्धr(39)देवता सुख दु:ख दायक । ऐसे कहना आवश्यक । ती दैवते मन काल्पनिक । त्याचे दु:ख मजसी न लागे ॥579
देवता रुपाने मन आपण । मने कल्पिले देवतागण । ते जै सुख देती जाण तै । मुख्य कारण मन जाहले ॥58०॥
देवता सुख दुखदायक हैं, ऐसा कहना अनिवार्य है, क्योंकि देवता मन की कल्पना हैं. मन रूप से देवता हम हीं है, मन से ही देवतागण की कल्पना की है व मन ही हमें सुख दुख देता है. उसका मुख्य कारण हमारा मन ही है. इसलिए मनुष्य को जब अत्यंत
प्रसन्नता होती है तो अनायास ही ईश्वर की याद आती है और जब अत्यंत दुख होत है तो भी अनायास ही भगवान याद आते हैं. इससे ईश्वर और मनुष्य का आध्यत्मिक संबंध जोडकर मानवता को नीतिमूल्यों की सीखं देनेवाले संत व अध्यात्म, श्रद्धा, उपासना, रूढि, परम्परा, देवी -देवता, कुल देवता यह हमारे पूर्वजों ने निर्मित की हुई भारतीय संस्कृति की विरासत होने से हमें उसका सार्थ अभिमान है.

रविदासिया सर्वश्रेष्ठ धर्म

रविदासिया सर्वश्रेष्ठ धर्म
धर्म मनुष्य के लिए है, मनुष्य धर्म के लिए नहीं. जीवित रहने के लिए मनुष्य को, काल, स्थान, परिस्थिती के अनुसार हमेशा परिवर्तन करते हुए जीना पडता है, इसलिए विश्व के किसी भी धर्मी को क्या खाना है, क्या पीना है, क्या पहनना हे, कैसे उठना हे,
रविदासिया सर्वश्रेष्ठ धर्म, जय रविदास ! जय भीम !! जय गुरुदेव !!! 
कैसे बैठना है, कैसे सोना है आदि परिवर्तनशील सामाजिक रूप मे धर्म हस्तक्षेप नही करता. धर्म का मुख्य अंग ईश्वर और मनुष्य के आध्यात्मिक संबंध और सामाजिक नीतिमूल्य जतन करने हेतू नीति-नियम तय कर धारण करनेवाले समाज समूह की अलग पहचान निर्माण करना है. भक्ति, गुरु भेंट, गुरू बोध और नाम साधना यह मूल तत्व भगवान रविदासजी ने अपने रविदासिया धर्म में बताए है. अलग - अलग रूप में सभी धर्मो का आधार अनादि अनंत परमेश्वर माना है. कोई प्रकृति के नियमों को देव मानता है तो कोई पथ्थर मे भगवान को देखता है. कोई अपने मन मे भगवान का स्थान खोजता है तो कोई नाम में भगवान को देखता है, इसलिए भगवान की संकल्पना लगभग सभी धर्मो ने मान्य की है. इस वजह केवल पूजा, आराधना, उपासना करने के नीति-नियम प्रत्येक धर्म के अलग अलग है. अत: पूजा, आराधना, उपासना पद्धति में उस धर्म की स्वतंत्र पहचान होती है, सही सिद्ध होता है. भगवान रविदासजी ने अपनी गुरु वाणी में अपने रविदासिया धर्म की पूजा पद्धती बताई है.
माई गोिवद पूजा कहा ले चरावउ । अवरू न फू लु अनूपु न पावउ ॥ रहाउ ॥
दृधुत बछरै थनहु बिटारिओ । फूलु भवरि जलु मी न्ो बिगारिओ ॥1
मैलागर बेर्हे भुगअंगा । बिखु अंम्रित बसहि इस संगा ॥2

धुप दीप नईबेदहि बासा । कैसे पूज करहि तेरी दासा ॥3
तनु मनु अरपउं फुल चरावउ । गुर परसादि निरंजनु पावउ ॥4
पुजा अरचा आहि न तोरी । कहि रविदास कवच गति मोरी ॥5

गुरु रविदास कहते है, कोई भी फूल मुझे पूजा के योग्य लगता नहीं तब हे माते मै क्या अर्पण करूं और गोिवद की पूजा करु क्योंकि फूल भंवरो ने, पानी मछलियो ने, दूध गाय के थन में ही बछडे ने झूठा किया है और चंदन वृक्ष को भुजंग ने लपेटने से विष और अमृत एकसाथ रहते है, धुप, दीप भोग बासी होने से वे भी पूजा के योग्य नही है. इसलिए है प्रभू इस सेवक को तुम्हारी पूजा किससे करनी चाहिए और जब तुम्हारी पूजा-आराधना मै नही कर सका तो मेरी क्या गति होगी? यह मैं जानता हूं. अत: हे प्रभु गुरु कृपा से निर्मल, पवित्र हुए मेरे तन - मन रूपी फूल अर्पण कर तम्ॅ हारी पूजा-आराधना करता हूं.
गुरु रविदास कहते है - ष्टद्धr(39)तेरो किआ तुझही किआ अरपउ ।ष्टद्धr(39) हे प्रभु जिसे तूने निर्माण किया है उसे तुझे ही अर्पण करने का क्या अर्थ है? अर्थात फूल चढाकर अगरबत्ती, मोमबत्ती जलाकर, दूध, चंदन का अभिषेक कर, होम हवन कर प्रभु परमेश्वर की पूजा आराधना भक्ति नहीं की जाती तो अपना कहकर जो मेरे पास है अर्थात वह भी तुम्हारा ही है, ल२किन यही मेरा तन - मन प्रभु चरण में अर्पण किया तो ही सच्ची पूजा भक्ति आराधना होती है ओर भक्ति तभी सफल होती है जब मनुष्य को गुरु मिलता है और गुरु बोध होता है इसलिए गुरु ब्रह्म वक्ता,, ब्रह्मा श्रोत्री , ब्रह्मनिष्ठा है यह जानकर उसने असीम प्रेम करें. गुरु रविदासजी कहते है, जो मनुष्य अंतर्मुख होकर सोहम् - सोहम् के उच्चार से प्रभू का नाम अखंड ध्यान करता है उसके तीनो ताप नष्ट होते है. इससे कर्मकांड विरहित अखंड नाम साधना भगवान रविदास के रविदासिया धर्म की पूजा आराधना पद्धति है, स्पष्ट हो जाती है. गुरू रविदासजी महाराज कहते है, सोहम् - सोहम् उच्चारण करने से श्रेष्ठ पुरुष प्रभू परमेश्वर से प्रेम भाव निर्माण होता है. सोहम् सोहम् उच्चारण करने से अपनी कभी हार नही होती. यह गुरू का दिया हुआ गहन नाम है इसलिए दूसरा कुछ खोजने की आवश्यकता ही नही रहती. यह गुरुदेव का भजन होने से मनुष्य के मन मे कोई डर नही रहता. शाम व ध्यान समय सोहम् सोहम् उच्चारण करने से मनुष्य को कोई भी बाधा नही होती इसलिए मनुष्य का मन निर्मल होकर करण कारण से अलग प्रभु परमेश्वर की भेंट होती है. गुरु रविदास महाराज कहते है, सोहम् सोहम् के उच्चारण से मनुष्य का मन शांत होता है और मनुष्य नीति मार्ग का आचरण करता है. नीतिमान मनुष्य के हृदय में दया, अिहसा, मैत्रीभाव जागरुक होकर वह सद्मार्ग का आचरण करता है इसलिए अनायास ही मनुष्य का दुख नष्ट हो जाता है यही रविदासिया धर्म का मूल तत्व है. भारतीय मिट्टी की सुगंधवाली हिन्दी गुरु रविदासजी महाराज की मात्र भाषा है. हम सभी की राष्ट्रभाषा बोली भाष हिन्दी रविदासिया धर्म की धर्म भाषा है. इससे रविदासिया धर्म की महानता ध्यान में आती है. गुरु रविदास ने कर्मकांड का संपूर्ण खंडन करने से हमे धर्म दीक्षा की आवश्यकता नही रहती. हमारे मूल, हमारे कुल रविदास होने से हम जन्म से ही रविदासिया है.
रविदासिया समाज बंधुओं को महत्वपर्ण सूचना 

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भाई और बहनों - रविदासिया सर्वश्रेष्ठ धर्म

रविदासिया समाज बंधुओं को महत्वपर्ण सूचना


भाई और बहनों -  
1) हमारा धर्म बदल भी गया तो हमारी अनुसूची की जाति कायम है.
2) जाति की आवश्यकता है तब तक जाति हमारे कागजात, सरकारी रिकार्ड पर, जाति संबंधी जानकारी कायम रहने से अनुसूचित जाति के नाम पर मिलने वाली सभी सहूलियतें, सामाजिक, शैक्षणिक लाभ, राजकीय आरक्षण सभी संबैधानिक अधिकार मिलते रहेंगे 
3) इससे रोज के व्यवहार में, परिचय देते समय, शादी-विवाह में, जाहिर भाषण करते समय, कहानी-उपन्यास, वीर रस के गीत, कविता लिखते समय, गाते समय अपने समाज का उल्लेख रविदासिया समाज ऐसा ही करें.  
4) अपने घर परिवार में जन्मे हुए शिशु के अस्पताल, नगरपालिका में नाम दर्ज करते समय, बालवाडी या प्राईमरी स्कूल छोटे बच्चों को दाखिल करते समय और जहां-जहां छोटे बच्चों के धर्म व जाति का रिकार्ड करना जरूरी है वहां-वहां धर्म रविदासिया और अपनी चांभार, ढोर, माला, मादिगा, मोची, चमार, परमार, समगर, रेगर व अन्य अनुसूचित जाति के जो जिस जाति के हैं उसका उल्लेख करें  
5) और जिन बच्चों के उल्लेख पहले से ही हुए है उससें कोई भी बदलाव न करें  
6) उसी तरह इससे पूर्व निकाले गए जाति प्रमाणपत्रों, स्कूल के दाखिले, राशनकार्ड के हिन्दू धर्म व जाति सबंधी लिखावट को बदलने की आवश्यकता नहीं है.  
7) इससे आगे जब कभी अर्थात भारत की जनगणना में अपना धर्म रविदासिया व अनुसूचित अपनी जाति का उल्लेख कराएं.  
8) कालांतर के बाद भारतीय समजा व्यवस्था में रविदासिया धर्म प्रस्तावित होकर रविदासिया समाज एक संघ होने पर चमार, ढोर, माला, मादिग, मोची, चमार, परमार, रेगर आदि जाति वाचक नाम अपने आप समाप्त हो जाएंगे.  
9) एक ही रविदासिया समाज की पहचान निर्माण होगी. आगे की पीढियों को स्वतंत्र धार्मिक पहचान, समान सामाजिक दर्जा, सामाजिक राजकीय साख एंव प्रतिष्ठा प्राप्त हो जाएगी.
यह प्राप्त करने के लिए
 
रविदासिया सर्वश्रेष्ठ धर्म,
जय रविदास ! जय भीम !! जय गुरुदेव !
!!
1) गांव खेडे में अप्लसंख्यक क्षेत्र के चर्मकार समाज तहसील स्तर पर चर्मकार समाज से जोडने होंगे 2) तहसील स्तर पर संपूर्ण विधानसभा क्षेत्र के चर्मकार समाज एकत्रित करने से समाज का एकसंघ तैयार होगा 3) इसी संघ की स्वतंत्र रविदासिया समाज पंचायत समिती प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में स्थापन करनी होगी. 4) संपूर्ण भारत के राज्य व केंद्र शासित प्रदेश की रविदासिया समाज पंचायत समितियां अखिल भारतीय रविदासिया धर्म संघटन से जोडा जाएगा. 5) इसी तरह संपूर्ण भारत के चर्मकार समाज भाईयों को रविदासिय धर्म का सुरक्षा कवच अपने आप ही मिल जाएगा. 6) इससे चर्मकार समाज मन में अल्पसंख्यक होने का डर समाप्त हो जाएगा और मन का खौफ नष्ट हो जाने से मनुष्य के प्रगति के बंद दरवाजे अपने आप खुल जाते है.
चलो उठो रविदासिया समाज पंचायत साम्ोती का गठन अपने अपने विधानसभा क्षेत्र में करे.
1) रविदासिया पंचायत समिती यह एक प्रकार से जाति पंचायत होगी.  
2) संपूर्ण भारत के प्रत्येक विधानसभा क्षेत्रों में एक-एक समिती होगी. 
 3) यह समिती विधानसभा क्षेत्र के समाज भाईयों में रविदासिया धर्म फैलाने का काम करेगी.  
4) यह कमेटी, विधान सभा क्षेत्र के समाज भाईयों का डाटा जमा करेगी.  
5) विधानसभा अध्यक्ष द्वारा जमा किया डाटा एकत्रित कर अगली कमेटी पांच वर्षो के लिए चुनी जाएगी.  
6) रविदासिया समाज पंचायत के सदस्य, पदाधिकारी किसी भी स्थिती में हिन्दू धर्म, श्रद्धा अंधश्रद्धा, रुढि, परम्परा, देवी-देवताओं पर टिपण्णी नही करेंगे.  
7) सवर्ण हिन्दू समाज व रविदासिया समाज के बीच द्वेष, दूरी निर्माण हो ऐसा कोई भी आचरण समिती सदस्य नहीं करेंगे. 
 8) रविदाससिया धर्म प्रचार-प्रसार का काम केंद्रीय व राज्यस्तरीय कमेटी व हमारे धर्म के धर्म गुरू द्वारा ही की जाएगी.  
9) गुरू रविदास महारजजी की जयंती साल में एक बार एक ही दिन माघ पूर्णिमा रविदासिया समाज पंचायत समिती के मुख्यालय में सभी समाज भाईयों की उपस्थिती में मनाई जाएगी.  
1०) कालांतर के बाद रविदासिया समाज पंचायत समिति के प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में एक रविदासिया भवन निर्माण किया जाएगा व वह हमारे समाज का स्थानीय धर्म संघ व विचारपीठ होगा.  
11) रविदासिया समाज पंचायत समिति उनके विधानसभा क्षेत्र के चर्मकार समाज की सभी जातियों के लोगों की जानकारी - कुल, जनसंख्या, कुल, मतदाता संख्या, सूची व मतदाता अनुक्रमांक के रूप में जमा करेगी.  
12) प्रत्येक परिवार की आíथक, शैक्षणिक व व्यवसायी डाटाबेस जानकारी जमा करने का काम किया जाएगा.

जय रविदास ! जय भीम !! जय गुरुदेव !!!


लेखक - श्री. अच्युतराव भोईटे (बी.कॉम एम.बी.ए.)

अध्यक्ष - गुरू रविदास धर्म सभा
अध्यक्ष (महाराष्ट्र प्रदेश) अखिल भारतीय रविदासीया धर्म संघटन
मो. नं. 98758728


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