सभी चमार जातियों की मुक्ति एवं प्रगति का रास्ता है - ‘‘रविदासिया धर्म’’
भगवान रविदास जन्मस्थान मंदिर, वाराणसी, उत्तर प्रदेश. |
एक समय था जब राजा एवं प्रजा पर धर्म-ग्रंथांे का निर्विवाद अधिकार था। धर्म-ग्रंथों के अनुसार आचार-व्यवहार ही नैतिकता मानी जाती थी। आज धर्मांध धर्म-सत्ता समाप्त हो गई है, इसलिए धर्म-निरपेक्ष, लोकतंत्र व खुली अर्थव्यवस्था का आग्रह करते हुए सारा विश्व तानाशाही से लोकतंत्र की ओर एवं सत्तावाद से मानवतावाद की ओर एवं धर्मांधता से सहिष्णु धार्मिकता की ओर बढ रहा है। धर्मनिरपेक्ष भारतीय लोकतंत्र में जीवन व्यतीत करने वाले आधुनिक काल के लोगों के जीवन में अभी भी धर्म का महत्व है। भारत के सभी धर्मों के लोग धार्मिक , आध्यात्मिक, सांस्कृतिक, पारंपारिक, रीति-रिवाजों का पालन करने के नाम पर अपने धर्म संघ की शक्ति का प्रदर्शन करते हैं और धर्म के नाम पर राजनीति करते हैं। संपूर्ण भारत में हिन्दू धर्म की लगभग 4635 जातियों में से 3527 जातियां सवर्ण हिन्दू और 1108 जातियां अस्पृश्यों की है। सामाजिक सुधार के सभी प्रयोग अस्पृश्य जातियों पर होते हैं। इसलिए धर्म और जाति से स्वयं को दूर रखना ही उचित होगा, ऐसी भावना समाज में निर्मित हो गई है। इसलिए ‘‘मैं किसी धर्म को नहीं मानता’’ ‘‘मैं फलां धर्म का हूँ, परंतु प्रवृत्ति से धार्मिक नहीं हूँ’’ ‘‘मेरा जन्म फलां धर्मीय माता-पिता से हुआ है इसलिए वही मेरा धर्म है परंतु व्यक्तिगत जीवन में धर्म को मैं नहीं मानता’’ ‘‘मैं सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन में धर्म के साथ-साथ आनेवाली परंपराओं को मानता हूं, लेकिन देवी-देवताओं को नहीं मानता’’ आदि, इस तरह की धारणाओं के बावजूद प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी धर्म से बंधा हुआ है। यह उसकी सामाजिक आवश्यकता भी है, क्योंकि एक व्यक्ति को शायद धर्म की आवश्यकता नहीं रहती, लेकिन व्यक्तियों के समूह को धर्म की आवश्यकता रहती है।
भगवान रविदास मंदीर राज घाट वाराणसी, युपी |
हिन्दू धर्म से सवर्ण हिन्दूओं ने अस्पृश्यों को बहिष्कृत कर दिया। अस्पृश्य जातियों के कुछ लोग हिन्दू धर्म में जबरदस्ती पड़े रहे और कुछ लोगों ने धर्म परिवर्तन भी किया। चूंकि, अस्पृश्यों को भी धर्म की आवश्यकता थी। परंतु, हर जगह उनको उनकी जातियांे के नामों से ही जाना जाता रहा। दुर्गंधयुक्त जातियों के नामों को हमारे माथे पर अंकित कर पीढ़ी-दर-पीढ़ी गंदगी भरे काम करवाते रहे, अन्याय- अत्याचार चुपचाप सहन करते हुए गांव के बाहर रहते हुए किसी तरह हम अपना जीवन-यापन करते रहे। हमारे समाज को सदियों तक अस्पृश्य कहा जाता रहा और इस समाज को महात्मा गांधी ने चतुराई से हमें बदनाम करने के लिए ‘हरिजन’ नाम दे दिया। बाद में, इन्हें दलित भी कहा जाने लगा।
अब हमें, दलित क्यों कहते हो? ऐसा पूछने पर उत्तर मिलता है कि ‘‘आप अस्पृश्य, बहिष्कृत, गरीब और दुर्बल हंै इसलिए दलित कहलाते हो। मगर, ऐसा नहीं है कि कमजोर और दुर्बल को ही ‘दलित’ कहा जात है। हमारे समाज के मजबूत और ताकतवर व्यक्ति को भी ‘दलित’ कहा जाता है। हमारा मुख्यमंत्री हो तो उसे दलित मुख्यमंत्री, उपप्रधानमंत्री हो तो उसे दलित उपप्रधानमंत्री, लोकसभा अध्यक्ष हो तो उसे दलित लोकसभा अध्यक्ष, मंत्री हो तो उसे दलित मंत्री, एम.पी. हो तो उसे दलित एम.पी., एम.एल.ए. हो तो उसे दलित एम.एल.ए., आई.ए.एस. हो तो उसे दलित आई.ए.एस., आई.पी.एस. हो तो उसे दलित आई.पी.एस., डॉक्टर हो तो उसे दलित डाॅक्टर, इंजीनियर हो तो उसे दलित इंजीनियर , उद्योगपती हो तो उसे दलित उद्योगपति। इस तरह से बड़ी चालाकी से हमारे हर मजबूत व्यक्ति के सामने भी ‘दलित’ शब्द लगाकर हमारे समाज को गरीब एवं कमजोर दिखाया जाता है जबकि सवर्ण जाति के गरीब एवं कमजोर व्यक्ति के नाम के आगे कभी भी ‘दलित’ नहीं लगाया जाता। कहीं यह, हमें ‘दलित’ ही बनाए रखने की साजिश तो नहीं है?
हजारों साल की परंपरा वाले भगवान मनु के सनातनी हिन्दू धर्म को ब्रह्मण, क्षत्रीय, वैश्य, शूद्र और अति शूद्र वर्गों में बांटा और उनको क्रमशः सतोगुण, तमोगुण, रजोगुण, गुणहीन व अस्पृश्य यह गुण विशेष रखने वाले मनुष्यों के स्वभाव के अनुसार हिन्दू समाज का वर्गीकरण किया गया है। सवर्ण हिन्दू समाज की 3527 जातियां और बारह बलुतेदार है. पर वर्णबाह्य अस्पृश्य समाज की 1108 जातियां और अलुतेदार है. सवर्ण बलुतेदारों को उनके अधिकार का बलुत दिया जाता था। पर अस्पृश्य अलुतेदारों को भीख दी जाती थी। क्योंकि अस्पृश्यों का हिन्दू समाज में समावेश किया भी गया फिर भी हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार केवल सवर्ण हिन्दू ही हिन्दू है इसलिए अस्पृश्यों को हरिजन, दलित आदि कहकर गाली दी जाती है।
शून्य की खोज भारत में हुई. शून्य से गणित की निर्मिती हुई। गणित का उपयोग करके पिन से लेकर परमाणु बम तक की खोज सर्वप्रथम विदेशी वैज्ञानिकों ने ही की। भारत में गणित का उपयोग सिर्फ ग्रह तारों, कुंडली, हस्तरेखा और भविष्य बताने के लिए किया गया। समस्त सवर्ण हिन्दू समाज ने यह माना कि धर्मशास्त्र और पुराणों से आगे कोई दुनिया नहीं है। इसलिए, उन्होंने अपने ज्ञान के दरवाजे बंद रखे थे। उन्होंने कोई सामाजिक उत्थान का कार्य नहीं किया लेकिन, हिन्दू धर्म की वर्णवादी व्यवस्था को बनाए रखने के लए अपनी कई पीढियां लगा दी। लगभग 800 साल मुसलमानों की सत्ता और लगभग 250 साल अंग्रेजों की गुलामी के समय हिन्दू धर्म परम्पराओं की रक्षा की और अपने ही धर्म के शूद्र एवं अस्पृश्यों का शोषण करते रहे, उनपर अत्याचार करते रहे।
संपूर्ण भारत में लगभग 1108 जातियों में विभक्त, असंगठित अस्पृश्य समाज की स्थिति ‘आगे कुंआ पीछे
खाई’ जैसी हो गई थी। मुसलमान अस्पृश्यों को हिन्दू समझकर अत्याचार करते थे और सवर्ण हिन्दू अस्पृश्य जाति का मानकर उन पर अत्याचार करते थे। इसलिए, हजारों अस्पृश्यों ने मुस्लिम धर्म को स्वीकार किया था कि शायद इससे उन्हें मुसलमानों के अत्याचारों से मुक्ति मिलेगी और सवर्ण हिन्दूओं के अत्याचारों से भी हमेशा के लिए छुटकारा मिल जाएगा। परंतु, वहां भी उनके साथ अछूतों सा ही व्यवहार किया गया। आगे, अंग्रेजों के काल में भी हजारों अस्पृश्यों ने इसाई धर्म स्वीकार किया और आज भी अनेक अस्पृश्य लोग ईसाई धर्म अपना रहे हैं लेकिन वहां भी उन्हें निचले दर्जे का ही माना जाता है। भारतीय संस्कृति के आधार संत परम्परा के संत महापुरुषों ने अस्पृश्यों के प्रति आस्था, प्रेम, करुणा और दया भाव व्यक्त कर अस्पृश्यों का कुछ अनुपात में धर्मांतर को रोका अन्यथा संपूर्ण भारत के अस्पृश्यों को इस्लाम, ईसाई धर्म में धर्मांतर होकर हिन्दू धर्म की निंव को नष्ट कर दिया होता। अस्पृश्यों के धर्मांतर को रोकने के लिए संत, महापुरुषों ने अस्पृश्यता को लेकर अस्पश्यों दलितों के सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक उन्नति के लिए उल्लेखनीय कार्य किया। इतिहास इस बात का गवाह है। परंतु, अस्पृश्य जाति में जन्मे और अस्पृश्यता की प्रत्यक्ष आंच का अनुभव करने वाले भगवान रविदास जी और परमपूज्य डा. बाबासाहेब अम्बेडकर ने अस्पृश्यों को भारतीय समाज व्यवस्था में समान सामाजिक दर्जा और प्रतिष्ठा दिलाने के लिए हिन्दू वर्ण व्यवस्था के विरुद्ध संघर्ष कर एक नया इतिहास रचा।
‘‘चैदह सौ तेंतीस की माघ सुदी पंद्रास । दुखियों के कल्याण हित प्रगटे श्री रविदास ।’’
वराणसी के सीरगोवर्धनपुर में विक्रम सवंत 1433 (ई.स. 1377) को माघ सुदी पूर्णिमा दुखियों का कल्याण करने के लिए ही भगवान रविदास जी का जन्म अस्पृश्य जाति में हुआ। उस समय अस्पृश्यता, ऊंच-नीच का पालन कठोरता से किया जाता था। फिर भी, भगवान रविदास जी का मानव कल्याणकारी उपदेश सुनकर राजा नागरमल, राणा वीर बघेल सिंह, सिकंदर लोधी, माहाराणा संग्राम सिंह, राजा चंद्रप्रताप, राजा अलावदी बादशाह, बिजली खान, राणा रतन सिंह, महाराणा कुंभाजी, महारानी झालीबाई, महान संत मीराबाई, बेबी कर्माबाई, बेबी भानमति, संत गोरखनाथ सहित सभी वर्गों के राजा-महाराजा भगवान रविदास जी के शिष्य हुए। भगवान रविदास जी ने कभी भी अपनी जाति के कारण कभी भी हीनता महसूस नहीं की। ‘मेरी जाति विखियात चमार’ ऐसा डंके की चाटे पर कहते थे। भगवान रविदास जी ने समस्त चर्मकार समाज को गौरवान्वित किया है। अस्पृश्य समाज की ऐतीहासिकता बताते हुए भगवान रविदास जी कहते हैं, ‘चार बरण बेद से प्रकट। आदि जनम हमारा’ ब्राह्मण, क्षत्रीय, वैश्य और शूद्र यह चार वर्ण वेदों से प्रकट हुए है, ऐसा तुम कहते हो, लेकिन चर्मकार समाज उससे भी पहले वेदपूर्व काल का है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि सवर्ण हिन्दू धर्म और चर्मकार समाज का किसी भी रूप मे कोई भी संबंध स्थापित नहीं होता। अर्थात, चर्मकार समाज सवर्ण हिन्दू धर्म से पूरी तरह अलग है और चर्मकार समाज सवर्ण हिन्दू धर्म में समाविष्ट नहीं है। यह कहते हुए भगवान रविदास जी ने हिन्दू वर्ण व्यवस्था को धक्का दिया। ‘‘मेरी जाती कूट बांढ़ला ढोर ढावंता, नितही बनारसी आस पासा’’। काशी, बनारस के पास बस्ती में रहने वाले मेरी जाति के लोग हर रोज मरे हुए जानवरों को खींचकर ले जाने का काम करते हैं। ऐसा बताते हुए भगवान रविदास जी ने चर्मकार समाज का दुःख विश्व के सामने लाकर खड़ा किया और उनके लगभग प्रत्येक दोहे में ‘कहे रविदास खलास चमारा’ कहकर संपूर्ण भारत में बिखरे हुए चर्मकार समाज के हृदय में आत्म-सम्मान स्थापित किया। इसीलिए संपूर्ण भारत के चर्मकार समाज के आदर्श (आयडल) रहे भगवान रविदास जी के नाम पर हमारा चर्मकार समाज एक संघ, एक जुट हो सकता है, इसका हमें पूर्ण विश्वास है।
हमारे चर्मकार समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले सरकारी अधिकारी, विधायक, सांसद, राजनितिक पार्टियों
भगवान रविदास मंदिर, यु. के. |
भगवान रविदास जी कहते है, ‘जात पात के फेर मही, उरझी रहयी सब लोग, मनुष्यता को खात हयी रविदास जातका रोग।’ जाति-पाति के चक्रव्यूह मे फंसने से रोग पीडि़त, स्वाभिमान शून्य हुए चर्मकार समाज में जाति-पाति का चक्रव्यूह तोड़कर बाहर निकलने की ऊर्जा, शक्ति और स्वाभिमान जागृत होना चाहिए और जाति-पाति के विरुद्ध बगावत करने का साहस और स्वाभिमान पैदा होना चाहिए। इसलिए भगवान रविदास जी ने चमार जाति का अर्थात् चर्मकार समाज का गौरवपूर्ण इतिहास बताया है।
भगवान रविदास जी कहते है, ‘‘जनम जात कूं छाडि़ करि करनी जात प्रधान । इहयो चासा धरम कहे रविदास बखान।’’ हमारे समाज के जन्म के साथ ही जोडे़ गए अस्पृश्यता के दाग को मिटाना ही होगा और भगवान रविदास जी के बताए सच्चे मार्ग को अपनाना ही होगा। तब जाकर चर्मकार समाज को सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त होगी। अपनी रचना ‘बेगमपुरा शहर को नाउ’ में गुरु रविदास कहते है, ‘कहि रविदास खलास चमारा, जो हम सहरी सू मीत हमारा।’ स्वतंत्र अध्यात्मिक मार्ग ‘रविदासिया धर्म’ को अपनाकर सब दुःखों का अंत करने का आह्वान भगवान रविदास जी करते हैं।
संपूर्ण हिंदूस्तान में अस्पृश्यों की लगभग 11 सौ जातियां और लगभग 21 करोड़ आबादी होने के बावजूद भी आए दिन अस्पृश्य समाज पर अमानुषिक अत्याचार की खबरें देश के किसी न किसी भाग से आती ही रहती हंै। कहीं उनके घर जलाने की, कहीं उनको गोली से उड़ाने की, कहीं उनके कत्ल की, कहीं उन्हंे गाँव से भगा देने की, कहीं उनकी महिलाओं के शील-हरण की आदि ऐसे अत्याचार जिनकी कल्पना भी आज के सभ्य समाज मे नहीं की जा सकती और यह अत्याचार उन पर सवर्ण हिन्दूओं द्वारा ही किये जाते हैं। इसलिए भगवान रविदास जी कहते है ‘‘सतसंगति मिली रहीए माधो जैसे मधूप मखीरा।’’ जिस तरह छत्ते के इर्द-गिर्द मधुमक्खियाँ एक संघ में एकजुट होकर रहती हैं और शत्रु पर टूट पड़ती हैं, उसी तरह चांभार, ढोर, मला, मादिगा, मोची, चमार, जाटव, भंगी, बलाई, मेघवाल, बैरवा, कोली, जुलाहा, दुसाध, परमार, समगर, रेगर आदि विभिन्न चमारों की जातियों में विभक्त समाज को ‘रविदासिया’ नाम के छत्ते में आकर एक संघ में एकजूट होने में ही हमारे समाज की सुरक्षा है। क्योंकि, छत्ते पर पत्थर मारने की हिम्मत कोई नहीं करता। शेर के नाम से ही लोग डरते हैं। ‘रविदासिया धर्म’ अपनाकर लोगों को अपना डर निकाल फेंकना है। उसके बाद लोग आपकी एकता से डरेंगे। आपकी मां-बहनों की तरफ कोई आंख उठाकर भी नहीं देख सकेगा। लगभग 21 करोड़ जनसंख्या की ताकत वाला ‘रविदासिया’ नाम ही हमारे समाज की सुरक्षा होगी। सिर्फ जरुरत है, ‘रविदासिया’ नाम पर सर्वस्व समर्पित करने की। उसके बाद आपकी आनेवाली पीढि़यों को कभी कोई तकलीफ नहीं होगी। एक नारा भी है- ‘‘रविदासिये शेर गरजेंगे, बाकी सारे भागेंगे’’
14 अपै्रल 1891 को परम पूज्य बाबा साहेब डाॅ. अम्बेडकर का हमारे अस्पृश्य समाज मे जन्म हुआ। उन्होंने लगभग 32 वर्षों तक शिक्षा प्राप्त की। सन् 1913 से 1923 इन दस सालों के काल मे इंग्लैंड, अमेरिका में जाकर समाजशास्त्र, मानवशास्त्र, इतिहास, राजनीति, अर्थशास्त्र आदि विषयों का अध्ययन किया और एम.ए., पीएच.डी. (कोलंबिया), डी. एससी. (लंदन), एलएल. डी. (कोलंबिया), डी. लिट. (उस्मानिया), बार-एट लॉ (लंदन) आदि उपाधियां प्राप्त की। उस समय 1919 मे पहली बार समस्त भारत के सात करोड़ अस्पृश्यों को मतदान का अधिकार मिले, यह मांग उन्होंने ‘साउथबरो कमीशन’ के सामने रखी। उसके पश्चात 1931 मे इंग्लैड में हुए गोलमेज अधिवेशन में अस्पृश्यों का प्रश्न सामाजिक ही नहीं राजनीतिक भी है और राजनीतिक समस्या के रूप में इसका विचार किया जाना चाहिए - ऐसा स्पष्ट करते हुए समस्त अस्पृश्यों के दुख विश्व के सामने पेश किए। अस्पृश्य समाज स्वतंत्र वर्ग है, यद्यपि हिन्दू समाज में समावेश किया गया है फिर भी
जगातील सर्वात मोठे भगवान रविदास सत्संग भवन, जालंधर, पंजाब |
परमपूज्य बाबा साहेब डाॅ. अम्बेडकर ने महात्मा गांधी के विरोध को ताक पर रखते हुए गोलमेज अधिवेशन में अस्पृश्यों का पक्ष प्रभावी रूप से पेश किया और हिन्दू, मुसलमान, सिख, एंग्लो इंडियन की तरह अस्पृश्य जाति भी स्वतंत्र वर्ग है और हिन्दू धर्म में समाविष्ट नहीं है यह सिद्ध करते हुए राज सत्ता में हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई आदि धर्मों की तरह अस्पृश्यों को भी सत्ता में भागीदारी तथा भारतीय संविधान में अस्पृश्यों के अधिकारों की स्थापना करने की मांग की।
17 अगस्त 1932 को ब्ििरटश सरकार द्वारा प्रधानमंत्री रैम्से मैकडोनाल्ड ने जाति विषयक प्रश्नों का निर्णय (कम्यूनल अवार्ड) घोषित किया और मुसलमान, ईसाई, सिख, एंग्लो इंडियन की तरह अस्पृश्य समाज के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र और इसके अलावा सर्वसाधारण मतदान क्षेत्र में अस्पृश्यों को मत देने का अधिकार दिया। अस्पृश्यों को दिए गए स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र के विरोध में 20 सितंबर 1932 यरवदा, पूणे की जेल में महात्मा गांधी ने आमरण अनशन करते हुए बाबा साहब डाॅ. अम्बेडकर को स्वतंत्र निर्वाचन का अधिकार समाप्त कर आरक्षित पदों की व्यवस्था पर समझौता करने के लिए मजबूर किया। इसी शर्त पर डाॅ. अम्बेडकर और महात्मा गांधी के बीच पूना में यह समझौता हुआ। इसी ऐतिहासिक समझौते को ‘पूना पैक्ट’ अथवा ‘पूना समझौता’ के नाम से जाना जाता है। पूना पैक्ट के जरिये भारत के समस्त अस्पृश्यों के राजनैतिक एवं सामाजिक अधिकार प्रस्तावित कर परम पूज्य बाबा साहेब डाॅ. अम्बेडकर ने हमारे जीने का मार्ग सुखमय करने का प्रयत्न किया।
अस्पृश्यों को केवल आरक्षण में संरक्षण दिलाना ही काफी नहीं। सामाजिक, राजनीतिक, शैक्षणिक और आर्थिक उद्देश्य से शुरू हुए संगठनों का कोई स्थाई रूप ना होने, कालांतर मंे समाप्त होने अथवा बंट जाने से कोई भी व्यक्ति हमेशा इनसे बंधा नहीं रहता। धार्मिक संघ मंे प्रत्येक व्यक्ति का भावनात्मक जुड़ाव रहता
भगवान रविदास मंदिर, इंग्लंड |
इस महान बौद्ध धर्म क्रांति में लाखों की संख्या में अस्पृश्य जातियों के लोगों ने धर्मांतरण किया। जिन्हें नव बौद्ध के नाम से जाना गया। लेकिन, विडम्बना यह रही कि वहां भी हमारे लोगों के साथ वही हुआ जो अन्य धर्मों में होता रहा है। बौद्ध धर्म के लोगों ने हमें अपना नहीं समझा। मुस्लिम, ईसाई, सिख, जैन और बौद्ध धर्म हमें अपना नहीं समझते और हिन्दू धर्म के लोग हमें दलित, हरिजन समझकर अपने से दूर रखते हैं। जिस जाति के हम हैं उस चर्मकार समाज में असंगठित लगभग 11 सौ जातियां है और प्रत्येक जाति अपना अलग-अलग अस्तित्व बताकर सवर्ण हिन्दू लोगों की शाबासी लेने में लगी हुई हैं। और, अपने चमारपन को पीढि़यों से बरकरार रखी हुई हैं। यहां तक कि उनको इस बात का अहसास भी नहीं है कि वे किसी पराए घर में हैं और इस पराए घर से अपमान के अलावा कुछ भी नहीं मिलेगा। चर्मकार समाज में एकता का नितांत अभाव है। कुछ लोग यह भी सोचते हैं कि हमारा कोई रखवाला नहीं है और चुपचाप अत्याचार सहन करते रहना ही हमारे नसीब में लिखा हुआ है।
अस्पृश्य, हरिजन, दलित की उपाधि से अपमानित हुए अपना समाज अपनी जाति का नाम बताते हुए शर्माता है, परंतु मैं हिन्दू हूं, ऐसा अभिमान से बताता है। दूसरी ओर, सवर्ण हिन्दू अपनी जाति का नाम खुलकर बताते हैं, जो हिन्दू अपनी जाति का नाम बताने में संकोच करता है, वह झूठा हिन्दू है। हमारे लोग झूठे हिन्दू हैं।
हिन्दू धर्म में समाविष्ट सवर्ण हिन्दू जातियों को समान सामाजिक दर्जा प्राप्त है, इसलिए सवर्ण हिन्दू जाति उपजाति के लोग एकजुट होकर रहते हैं। अज्ञान, अशिक्षा, गरीबी, गंदे रहन-सहन होने से उनमें भेद नहीं किया जाता। एक विशिष्ट व्यवसाय से उस व्यक्ति को अथवा जाति को दूर नहीं किया जाता। किसी सवर्ण हिन्दू जाति के व्यक्ति के हाथ से कोई बड़ा अपराध हुआ भी तो उसकी सारी जाति को लक्ष्य बनाकर उस जाति के घर-मकान जलाने के उदाहरण सुनाई नहीं पड़ते, लेकिन अस्पृश्य जातियों पर अत्याचार करने के लिए सवर्ण हिन्दू जातियां एक हो जाती है। इससे स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दू धर्म सिर्फ सवर्ण हिन्दू जातियों की प्रगति व रक्षा करने के लिए रचा हुआ है। अस्पृश्य जातियों की प्रगति या रक्षा के लिए नहीं। अतः सवर्ण हिन्दू जातियों में आर्थिक विषमता के बावजूद प्रत्येक सवर्ण जातियों को समान रूप से धार्मिक-सामाजिक साख और
प्रतिष्ठा प्राप्त है। साधु-संत, महात्मा, समाज सुधारकों ने गत अनेक शतकों से गला फाड़-फाड़कर बताया कि वर्णभेद, जातिभेद, अस्पृश्यता हिन्दू धर्म पर लगे कलंक हैं। परंतु एक भी सवर्ण हिन्दू जाति का व्यक्ति नहीं मानता कि हिन्दू धर्म कलंकित है। परंतु, अस्पृश्यों, हरिजनों, दलितों के लोग कलंकित, अपवित्र हैं यह बात प्रत्येक सवर्ण हिन्दू मानता है. इसीलिए जिस हिन्दू धर्म को हम अपना धर्म मानते हंै, समझते हैं उस हिन्दू धर्म के हमारे धर्म बंधु हमें कलंकित, दूषित, अपवित्र, अस्पृश्य एवं निम्न जाति का मानते हैं। और इसी कारण अन्य धर्मों के लोग जैसे- मुस्लिम, ईसाई, पारसी, जैन, सिख आदि भी हमें कलंकित, दूषित, अपवित्र, अस्पृश्य एवं निम्न जाति का समझकर हम से नफरत करते हैं।
हिन्दू धर्म के सबसे निचले स्तर पर समझे जाने वाले हमारे समाज का जीवित रहने का अधिकार हिन्दू धर्मशास्त्रों ने छीन लिया है। धर्मशास्त्रों में ही ये शोषण की व्यवस्था बनाई गई है। आज हमारे समाज को मिल रही सहूलियतें, संवैधानिक अधिकार आदि भारतीय संविधान के अनुसार मिल रहे हैं। इनमें संशोधन (अमेंडमेंट) हो सकता है। लेकिन, हिन्दू धर्मग्रंथों में सुधार (अमेंडमेंट) नहीं हो सकता। इसलिए आज भी हम हिन्दू धर्मशास्त्रों के अनुसार कलंकित, अपवित्र ठहरते हैं। जिस हिन्दू धर्म को हम अपना धर्म समझते हैं उस धर्म के धर्मग्रंथों में दिए गए कानून एवं नियमों के कारण ही हमारे समाज की यह दुर्दशा हुई है और कमाल की बात यह है कि हिन्दू धर्म के नियम, कानून, सनातनी होने के कारण वे बदले भी नहीं जाते। और, सवर्ण हिन्दू जाति के लोग इन धर्मग्रथों में दिए गए नियमों-कानूनों का पूरा-पूरा पालन करते हैं।
जब तक हम ‘हिन्दू धर्म’ से जुडे रहेंगे तब तक हम हिन्दू धर्मशास्त्रों के नियमों व कानूनों के अनुसार हमारे दर्जे कलंकित और अपवित्र ही रहेंगंे। चाहे, कोई व्यक्ति माने या ना माने हमें हमारे धार्मिक एवं सामाजिक हकों के लिए हमें हमेशा सवर्ण हिन्दू धार्मियों से लड़ते रहना होगा। दलितों ने धार्मिक एवं सामाजिक हक के लिए सवर्ण हिन्दू जाति के लोगों से संघर्ष किया इससे दलित और सवर्ण हिन्दू जाति के लोगों के बीच कटुता और दुश्मनी पैदा हो गई। इसलिए स्वतंत्र ‘रविदासिया धर्म’ स्वीकार करने से झगड़े के लिए कोई कारण ही बाकी नहीं रहेगा। क्योंकि, तब हमारे धार्मिक और सामाजिक हक अपने खुद के धर्म के होंगे। उनके लिए हमें सवर्ण हिन्दू लोगों से संघर्ष नहीं करना पड़ेगा, ना ही उनके सामने गिड़गिड़ाना पड़ेगा।
विश्व के किसी भी धर्म में किसी भी व्यक्ति अथवा समाज को प्रवेश की सहूलियत है, परंतु हिन्दू धर्म में सवर्ण जाति का हिन्दू बनने के लिए सवर्ण हिन्दू माता के गर्भ से ही जन्म लेना पड़ता है। धर्म दीक्षा लेकर अथवा धर्मांतरण कर हिन्दू धर्म में अस्पृश्यों को सवर्ण हिन्दू नहीं बनाया जा सकता। लेकिन, साजिश के तहत निम्न जातियों को हिन्दू धर्म से जरूर जोड़े रखा है। ताकि इनकी संख्या कम ना हो जाए। ‘‘अस्पृश्यता, भेदभाव आदि समाप्त करना है’’, ‘‘सभी लोग एक समान हैं’’, ‘‘सबसे प्रेम से रहो’’, ‘‘सभी हिन्दू एक समान है’’, ‘‘सभी भाई-भाई हैं’’, ‘‘गर्व से कहो हम हिन्दू हैं’’ आदि जैसे नारों से सवर्ण हिन्दू समाज ने हमारे समाज को बहकाए रखा है, बेवकूफ बनाए रखा है- हमें इस घिनौनी साजिश को समझना होगा!!
परमपूज्य बाबासाहेब डाॅ. अम्बेडकर ने अपने राजनीतिक सफर की शुरूआत करते समय 15 अगस्त 1936 को ‘स्वतंत्र मजदूर पार्टी’ की स्थापना की। उस पार्टी से मुंबई मंे चुनाव भी लडे़, परंतु उसके बाद ब्रिटिश सरकार की ‘स्टैनले कमेटी’ के समक्ष गवाही देते समय उनसे कहा गया कि आप अस्पृश्यों के नेता कैसे हैं? क्योंकि आपकी पार्टी तो सभी जाति-धर्म के लोगों की पार्टी है, उसी क्षण परम पूज्य बाबासाहेब डाॅ. अम्बेडकर ने ‘स्वतंत्र मजदूर पार्टी’ को बर्खास्त कर दिया। और 20 जुलाई 1942 को नागपूर मंे ‘शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन’ नाम से अस्पृश्य वर्ग की स्वतंत्र राष्ट्रीय पार्टी स्थापित कर देशभर के तमाम अस्पृश्य समाज की व्यथा ‘स्टेनले कमेटी’ के सामने रखी। आज भी लगभग 21 करोड़ अस्पृश्य समाज हिन्दू धर्म के पांव के नीचे दलित के रूप मे सवर्ण हिन्दू समाज के दबाव तले जी रहा है। और हमारे समाज के नेता, लेखक, चिंतक और कुछ संगठन भी ब्राह्मणवाद, मनुवाद, वर्ण, जाति और देवी देवताओं पर टीका-टिपण्णी करने में ही गर्व महससू कर रहे हैं। ब्राह्मणवाद, मनुवाद, जातिवाद, वर्ण, जाति, देवी, देवता, श्रद्धा-अंधश्रद्धा यह भारत के चमार जातियों की समस्या नहीं है। प्रचलित कानून, अंतर-जातिय विवाहों के चलते भविष्य मे यह समाप्त नहीं हुई तो इसकी तीव्रता जरुर कम हो जाएगी। चमार जातियों की इससे भी बड़ी समस्या है वह है- उनका अपना कोई धर्म नहीं है। यही कारण है की संपूर्ण भारत में लगभग 11 सौ जातियां, लगभग 21 करोड़ से भी ज्यादा जनसंख्या, व्यवसायिक समानता, एक जैसी पहचान होने के बावजूद भी चमार जाति एक संघ नहीं है।
दूसरी और सवर्ण हिन्दू समाज अनेक वर्ण जातियों मे बंटा हुआ उपरी तौर पर हमें दिखाई देता है. वे अनेक पक्ष-विपक्ष की पार्टीयों के प्रमुख बने बैठे है। एक दूसरे के ऊपर किचड उछालते नहीं थकते। परंतु हिन्दू धर्म के नाम पर सब एक जुट हो जाते हैं और देवी-देवताओं के उत्सवों में अपनी ताकत दिखाते हैं। मुस्लिम समाज में भी अनेक पंथ हैं। मुसलमान सभी पक्ष-विपक्ष की पार्टियों मे शामिल हैं। फिर भी मुस्लिम धर्म के नाम पर मस्जिदों में एक हो जाते हंै। ईसाईयों में भी अनेक पंथ है। वे सभी पक्ष-विपक्ष की पार्टियों में शामिल हैं। परंतु, ईसाई धर्म के नाम पर चर्चों में एक जुट हो जाते हैं।
चमारों की अनेकों जातियों का अपना कोई धर्म नहीं है, ना ही कोई मंदिर, ना ही कोई मस्जिद, ना ही कोई चर्च है। वे तो दूसरों के धर्म को ही अपना धर्म मानते हंै। दूसरों के मंदिरांे में ही जाते हंै। तो सोचिये लगभग 11 सौ जातियों मे बिखरे चमार कैसे और कहां पर इक्कठे होते हैं ? यही कारण है कि भारत के इतिहास मे सदियों से करोड़ो अस्पृश्यों के साथ जानवरों जैसा बल्कि उससे भी बदतर व्यवहार किया जाता रहा। उन्हांेने कई बार विद्रोह भी किए लेकिन उन्हें बुरी तरह से कुचल दिया गया। इसलिए जिस प्रकार हिन्दू - मंदिर, मुस्लिम - मस्जीद, सिख - गुरूद्वारा, ईसाई - चर्च, बौद्ध - बौद्ध विहार आदि गांव-कस्बों में अपने धर्म की धरोहर निर्माण करने में जी जान लगा देते हैं। उसी प्रकार हमंे भी प्रत्येक गांवों-कस्बों की अपनी बस्तियों मंे भगवान रविदास मंदिर और तहसील स्तर पर भगवान रविदास भवन बनाने के लिए हमे अपना सर्वस्व अर्पण करना होगा। तभी हमारी आगामी पीढि़यां ‘रविदासिया धर्म’ के नाम पर भगवान रविदास जी के मंदिरों में एक जुट हांेगीं, एक संघ होंगी।
संपूर्ण भारत में कमेरे समाज के रूप में पहचान प्राप्त हमारे चर्मकार समाज की जनसंख्या लगभग 21 करोड़ है। इतनी बड़ी राजनीतिक, सामाजिक ताकत होने के बावजूद केवल स्वतंत्र धर्म न होने से हमारे क्रियाकलापों को भी अप्रतिष्ठा प्राप्त हुई है। ईसाई धर्म का कोई भी व्यक्ति जब जूतों की दुकान लगाता है तब भी उससे नफरत नहीं की जाती, कोई भी मुसलमान व्यक्ति जब चमड़े का व्यवसाय करता है, तब भी उससे नफरत नहीं की जाती, परंतु जब भी हमारा चर्मकार बंधु अपना होटल भी खोलता है तो उसे ‘चमार का होटल’ कहा जाता है और उससे जाति आधारित नफरत की जाती है। उसका होटल बंद होने का खतरा पैदा हो जाता है। इसलिए, उसे किसी तरह अपनी जाति छिपाकर व्यवसाय करना पड़ता है।
परंतु सामाजिक, शैक्षणिक, आर्थिक, राजनीतिक दृष्टि से सर्व सम्पन्न हमारे ही चर्मकार समाज के कुछ समाज बंधुआंे के अनुसार हम हिन्दू है और हिन्दू धर्म से अस्पृश्यता खत्म हो गई है, जातिगत ऊंच-नीचता समाप्त हो गई है, अंतरजातीय विवाह हो रहे हैं, सवर्ण हिन्दूओं के साथ हम बैठकर खाना खाते हंै, जाति आधारित भेद-भाव का मूल प्रश्न ही खत्म हो गया है। अतः चर्मकार समाज को अलग धर्म बनाने का विचार करने की आवश्यकता नहीं है। यदि यह मान भी लिया जाए कि हिन्दू धर्म वास्तव में बदला है, अस्पृश्यों को हिन्दू धर्म में समा लेने की प्रक्रिया शुरू हो गई है यह अच्छी बात है। परंतु, प्रश्न यह है कि चांभार, ढोर, माला, मादिगा, मोची, चमार, भंगी, परमार, जाटव, मेघवाल, बलाई, दुसाध, समगर, रेगर आदि व अन्य अस्पृश्य जातियों को क्या सवर्ण हिन्दू का दर्जा मिलेगा? उत्तर है- नहीं! क्योंकि भारतीय समाज व्यवस्था में व्यक्ति या समाज की केवल शैक्षणिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में प्रगति होने से उस व्यक्ति या समाज को सामाजिक प्रतिष्ठा नहीं मिलती बल्कि जिस समाज के हम घटक है, उस समाज में हमारे जाति का दर्जा क्या है, इस पर उस व्यक्ति या समाज की प्रतिष्ठा निभर्र करती है.
दुख इसी बात का है कि दलित, हरिजन यह पहचान अस्पृश्य हिन्दू का दाग दुर्भाग्यवश हमें हमारे माता-पिता से वंश परम्परा से मिला है क्योंकि उस समय धर्म परिवर्तन करना उन्हे संभव नहीं था. परंतु आज संभव है प्रशन यह है कि धर्म परिवर्तन हमारा मूलभूत अधिकार होने के बाजूद भी उसी नीच, कलंकित, अस्पृश्य जाति की विरासत क्या हम अपने बच्चों को देने वाले हंै ? यदि नहीं, तो झूठे हिन्दूत्व का बुरका ओढ़कर जाति छिपाकर जीने से अच्छा है एकसाथ संपूर्ण भारत के समाज बंधुओं को एक सूत्र में बांधकर धार्मिक समानता और सामाजिक, राजनीतिक शक्तिशाली आदर्श समाज का निर्माण करने के लिए ‘रविदासिया धर्म’ को स्वीकार करें।
संपूर्ण भारत के हमारे रविदासिया समाज की राजनीतिक ताकत को बढ़ाने हेतु पंजाब के रविदासिया समाज ने पहल कर भारत के समस्त चर्मकार समाज को एकसूत्र में बांधकर स्वतंत्र धार्मिक आध्यात्मिक पहचान निर्माण करने के प्रयत्न के एक भाग के रूप में डेरा सच्चखण्ड बल्ला इस धार्मिक स्थान के प्रमुख गद्दी नशीन सतगुरू निरंजनदास महाराज जी और संत सुरिंदर दास बावा महाराज जी व चर्मकार समाज के प्रमुख संतांे की उपस्थिति में सीरगोवर्धनपुर बनारस में भगवान रविदास जन्मस्थान पर 30 जनवरी 2010 को 633 वीं भगवान रविदास जयंती के अवसर पर पांच लाख जन समुदाय की मौजूदगी में हैलिकाॅप्टर से पुष्प वर्षा करते हुए स्वतंत्र धर्म ‘रविदासिया धर्म’ की घोषणा की। इसी धर्म क्रांति के भाग के रूप में ‘गुरू रविदास इंटरनेशनल ऑर्गेनाइजेशन फारॅ ह्यूमन राइटस्’ नामक विश्व स्तरीय चर्मकारों की संस्था ने 14 नवंबर 2003 में रविदासिया समाज की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अलग पहचान दर्शाने वाले धार्मिक चिन्ह (लोगो)े ‘हरि’ रजिस्टर करवाया।
भारत को आजादी मिलने के बाद यह दूसरी धर्म क्रांति है. बाबासाहेब डाॅ. अम्बेडकर द्वारा अपनाया गया बौद्ध धर्म हमारे समाज का मूल धर्म नहीं बन सका। अब हम हमारे श्रद्धा के आराध्य भगवान रविदास जी व ‘रविदासिया धर्म’ के सहभागी बनकर लगभग 21 करोड़ रविदासिया समाज भाईयों को एक संघ में इकट्ठा कर अपनी ताकत का सुरक्षा कवच बनकर संपूर्ण भारत के गांव कस्बांे में बिखरे हुए अस्पृश्य समाज को ताकत दें। भगवान रविदास जी का आध्यात्मिक शक्ति का आशीर्वाद हमारे कमेरे समाज पर है। इसलिए हम जैसे हंै, जहां हंै, वहां की मिट्टी, समाज, संस्कृति के साथ आपसी एकरूपता दिखाकर रविदासिया समाज भाईयों की अलग पहचान का निर्माण करें।
आरक्षण का प्रश्न ?
सन् 1931 में पहली बार उस समय के जनगणना आयुक्त मि. जे. एच. हटन ने संपूर्ण भारत के अस्पृश्य जातियों की जनगणना की और बताया कि ‘भारत में 1108 अस्पृश्य जातियां हंै और वे सभी जातियां हिन्दू धर्म के बाहर हैं।’ इसलिए, इन जातियों को बहिष्कृत जाति कहा गया है। उस समय के प्रधानमंत्री रैम्से मैक्डोनाल्ड ने देखा कि हिन्दू, मुसलमान, सिख, एंग्लो इंडियन की तरह बहिष्कृत जातियां एक स्वतंत्र वर्ग है। और ये सभी जातियों का हिन्दू धर्म में समाविष्ट न हो इसलीए उनकी एक सूची तैयार की। उस सूची में समाविष्ट जातियों को ही ‘अनुसूचित जाति’ कहा जाता है। इसी के आधार पर भारत सरकार द्वारा ‘अनुसूचित जाति अध्यादेश 1935’ के अनुसार कुछ सुविधाएं दी गई हैं। उसी आधार पर भारत सरकार ने ‘अनुसूचित जाति अध्यादेश 1936’ जारी कर आरक्षण सुविधा प्रदान की। आगे 1936 के उसी अनुसूचित जाति अध्यादेश में थोड़ी हेरफेर कर ‘अनुसूचित जाति अध्यादेश 1950’ पारित कर आरक्षण का प्रावधान किया गया। परमपूज्य बाबासाहेब डाॅ. आम्बेडकर को 1931 की गोलमेज परिषद व उसके बाद 1932 मंे महात्मा गांधी के अनशन के समय में अस्पृश्यों को आरक्षण सहूलियतें दिलाने के लिए बहुत कष्ट झेलने पड़े और मिली हुई आरक्षण सहूलियतें कायम रखने के लिए संविधान निर्माण में बहुत संघर्ष करना पड़ा। जिसके फलस्वरूप हमें आज तक आरक्षण का लाभ मिल रहा है।
अनुसूचित जाति के नागरिक हिन्दू धर्म के अंतर्गत आते हैं, इसलिए उनको आरक्षण मिलता है। हिन्दू धर्म का त्याग कर बौद्ध धर्मांतर करने वालों का आरक्षण बंद हो जाएगा, ऐसा डर व्यक्त करने वालों को नागपुर में 14 अक्टूबर 1956 की बौद्ध धर्मांतरण जन सभा को संबोधित करते हुए बाबासाहेब डॉ. आम्बेडकर ने मुह-तोड़ जवाब देते हुए कहा था- ‘‘यह आरक्षण बड़ी मुसीबतांे, अत्यंत दुखों और बेशुमार विरोधियों का मुकाबला करके मैंने तुम्हारे लिए प्राप्त किया है। अस्पृश्यों का आरक्षण मेरे कोट की जेब मंे है।’’ बाबा साहब के कोट की जेब अर्थात् हिन्दू, बौद्ध और सिख धर्म मे अनुसूचित जातियां होती है। ऐसा भारतीय संविधान में प्रावधान है। इसलिए भारतीय जनगणना के परिवार पत्रक में इसका उल्लेख स्पष्ट तौर पर किया जाता है। ताकि अनुसूचित जाति के नागरिकों को जनगणना के परिवार पत्रक कालम नंबर 6 मंे बौद्ध धर्म और काॅलम नंबर 7 मंे अपनी अनुसूचित जाति चांभार, महार, ढोर, मांग, माला, मादिगा, मोची, चमार, परमार, समगर, रेगर, जाटव, भंगी, मेघवाल, बलाई, दुसाध, पासी, धोबी, खटिक आदि आप जिस जाति के है उस जाति का नाम रजिस्टर कराने की सुविधा हो। अर्थात हिन्दू धर्म का त्याग कर बौद्ध धर्मांतर करने के बाद भी अनुसूचित जाति के नागरिक अपनी जाति लिख सकते है. और जाति प्रमाणपत्र भी प्राप्त कर सकते है. और जाति प्रमाणपत्र हमारे पास है तो जाति के नाम पर मिलने वाला आरक्षण मिलता ही रहेगा. मतलब धर्मांतर करने से आरक्षण बंद नही होगा। बाबा साहब के कोट की जेब का सरल अर्थ मेरी समझ में आता है। आज, अगर लगभग 21 करोड़ से भी ज्यादा अनुसूचित जाति के नागरिकांे की बौद्ध धर्म के नाम से स्वतंत्र गणना होती, तो हमारी राजनीतिक ताकत संपूर्ण भारत में बढ़ जाती और उतनी ही हिन्दू धर्म की संख्या घट जाती, क्योंकि हम हिन्दू धर्म लिखते हैं जिससे हिन्दू धर्म की जनसंख्या बढ़ जाती है और संख्या बढ़ जाने से हिन्दू धर्म की राजनीतिक ताकत भी बढ़ जाती है। और, इसी ताकत के बल पर हमारे ही लोगों के ऊपर सवर्ण हिन्दूओं द्वारा अत्याचार किए जाते हैं, वह भी बंद हो जाते।
भगवान रविदास जी डंके की चोट पर कहते है ‘मेरी जाति बिखियात चमार’ अर्थात् ‘रविदासिया’ धर्म के संस्थापक हमारी चमार जाति के है। ‘रविदासिया’ धर्मांतर करने वाले हम लोग भी विभिन्न चमार जातियों के ही हैं अर्थात् रविदासिया धर्म अनुसूचित जातियों का ही है। मतलब हिन्दू धर्म का त्याग कर ‘रविदासिया धर्म’ में धर्मांतरण करने से किसी भी अनुसूचित जाति का आरक्षण बंद नहीं हो सकता। इसी बात को ध्यान मे रखते हुए, गुरु रविदास धर्म सभा के नेतृत्व मे फरवरी 2011 को मुंबई मे अनुसूचित जाति के चमार समाज को ‘रविदासिया’ नाम से स्वतंत्र धर्म भारतीय जनगणना मे रजिस्टर कराने की मांग रखी। इस मांग को लेकर हमारे नेताओं का प्रतिनिधी मंडल केंद्र सरकार के जनगणना संचालक श्री. रंजीत देओल जी से मिला। हमारे नेताओं से विस्तृत चर्चा करने के बाद रंजीत देओल जी ने जनगणना के परिवार पत्रक में अपना धर्म रविदासिया और अपनी अनुसूचित जाति लिखने की अनुमती दी। उसके बाद गुरू रविदास धर्म सभा के सभी कार्यकर्ताआंे ने मिलकर प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के माध्यम से खुब प्रचार-प्रसार किया और देशभर से हमारे हजारांे अस्पृश्य भाईयों ने भारतीय जनगणना 2011 मंे अपना धर्म ‘हिन्दू’ न लिखकर ‘रविदासिया’ लिखकर नया इतिहास रचा। मार्च 2011 में ब्रिटेन में हुई जनगणना में वहां आधिकारिक तौर पर 11,058 लोगों ने ‘रविदासिया धर्म’ अपनाया और इस प्रकार हमारे लोगों ने विदेशों में भी इतिहास रच दिया।
देवी देवतोओं का प्रश्न
समाज केवल विचारों पर जीवित नहीं रहता, उसे भावना के पोषण की जरूरत रहती है। देवी, देवता, आत्मा, परमात्मा, परब्रह्म आदि में समाज की भावना जुड़ी हुई है। अध्यात्म, श्रद्धा, उपासना, रूढि, परम्परा, देवी-देवता, कुल देवता आदि हिन्दू संस्कृति की पहचान जरूर दिखती है। किंतु, इसका किसी भी अर्थ में हिन्दू धर्म से मूल संबंध नहीं है। हिन्दू धर्म ईश्वर के तत्व पर खड़ा है ऐसा भी कुछ लोग मानते हैं। परंतु, हिन्दू धर्म की पहचान वर्ण एवं जाति व्यवस्था है। हिन्दू धर्म में प्रत्येक व्यक्ति को किसी ना किसी वर्ण या जाति का होना होता ही है। आप कौन से देवता की पूजा करते हैं, यह महत्वपूर्ण नहीं है। बल्कि, आप किस जाति के हैं यह महत्वपूर्ण है। अतः यह कहा जा सकता है कि हिन्दू धर्म की पहचान उस व्यक्ति की जाति से होती है, ना कि किसी देवता की पूजा से। अर्थात् जाति हिन्दू धर्म का मुख्य तत्व है। जिस तरह एक हिन्दू व्यक्ति के मुस्लिम दरगाह में जाने, पूजा करने, मन्नत मांगने से तो वह मुसलमान नहीं हो जाता, उसी तरह एक मुस्लिम व्यक्ति के अपने घर में भक्तिभाव से गणेश की मूर्ति स्थापित कर पूजा पाठ करने से वह भी हिन्दू नहीं हो जाता। इस देश में हिन्दू धर्म में जन्मा प्रत्येक व्यक्ति को भारतीय संस्कृति, श्रद्धा, देवी-देवता, कुल देवता की यात्रा, जाति, वर्ण की भावना से भरा है परंतु अब जाति अथवा वर्ण के आधार पर अस्पृश्य जातियों को इस धर्म की चैखट में बांधकर नहीं रखा जा सकता। भारत में जो भी निर्माण हुआ वह हमारा ही है, ऐसा कहने की हिन्दू धर्मियांे की पुरानी आदत है। इस मामले में संत ज्ञानेश्वर महाराज का उदाहरण उचित होगा - ‘देव ते कल्पित शास्त्र शाब्दीक। पुराणे सकंलित बाष्कलीक।।1।। ज्ञानेश्वर गाथ साखरे पत ।।547।। अर्थात देवता काल्पनिक है. शास्त्र शाब्दिक हैं और सभी पुराण वाचिक है। हिन्दू धर्म की ऐसी व्याख्या करनेवाले संत ज्ञानेश्वर महाराज और उनके भाइयों को जीते जी हुए हिन्दू वर्ण व्यवस्था में स्थान नहीं मिला, परंतु उनकी मृत्यु के पश्चात हिन्दूओं ने कहा कि वे हमारे ही है। संत तुकाराम महाराज जब तक जीवित थे, तब तक उनके द्वारा रचित गाथा को इंæायणी नदी में डुबोया और मृत्यु पश्चात सवर्ण हिन्दूओं ने कहा वे भी हमारे ही हंै। सभी संत हमारे ही हैं, ऐसा कहना, लेकिन उन्हें स्वीकार नहीं करना यह हिन्दू धर्म के लोगों का पाखंड है। ठीक इसी तरह सभी अस्पृश्य समाज हमारा ही है, ऐसा सिर्फ कहते रहना, परंतु उन्हें स्वीकार नहीं करना। भगवान बुद्ध को विष्णु का अवतार कहना यह हिन्दू धमिर्ंयों की परम्परा है।
रविदासिया धर्म : सर्वश्रेष्ठ धर्म
धर्म मनुष्य के लिए है, मनुष्य धर्म के लिए नहीं। जीवित रहने के लिए मनुष्य को काल, स्थान, परिसिथति के अनुसार हमेशा स्वयं में परिवर्तन करते हुए जीना पड़ता है। विश्व के किसी भी धर्म के व्यकित को क्या खाना है, क्या पीना है, क्या पहनना है, कैसे उठना है, कैसे बैठना है, कैसे सोना है आदि परिवर्तनशील धारणाएं हैं। इसलिए, सामाजिक रूप से धर्म का इसमें हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। धर्म का मुख्य कार्य है र्इश्वर और मनुष्य के बीच आध्यातिमक संबंध स्थापित करना और सामाजिक नीति, मूल्यों को प्रगतिशील बनाने हेतु नीति-निर्धारित करना तथा उन्हें धारण करने वाले समाज समूह की अलग पहचान निर्माण करना। भä,ि गुरु भेंट, गुरू बोध और नाम साधना यह मूल तत्व भगवान रविदास जी ने अपने रविदासिया धर्म में बताए है। अलग-अलग रूप में सभी धमोर्ं का आधार अनादि अनंत परमेश्वर माना है. कोर्इ प्र—ति के नियमों को देव मानता है तो कोर्इ पत्थर में भगवान को देखता है। कोर्इ अपने मन में भगवान का स्थान खोजता है तो कोर्इ नाम में भगवान को देखता है। इसलिए भगवान की संकल्पना लगभग सभी धमोर्ं ने मान्य की है। इसलिए, प्रत्येक धर्म की उपासना पद्धति अलग है। अत: पूजा, आराधना, उपासना पद्धति आदि से उस धर्म की स्वतंत्र पहचान सिद्ध होती है। भगवान रविदास जी ने अपनी वाणी में अपने 'रविदासिया धर्म की पूजा पद्धति बतलार्इ है।
मार्इ गोविंद पूजा कहा ले चरावउ । अवरू न फूलु अनूपु न पावउ ।। रहाउ ।।
–धुत बछरै थनहु बिटारिओ । फूलु भवरि जलु मीनी बिगारिओ ।।1।।
मैलागर बेहेर्ं भुगअंगा । बिखु अंमि्रत बसहि इस संगा ।।2।।
धुप दीप नर्इबेदहि बासा । कैसे पूज करहि तेरी दासा ।।3।।
तनु मनु अरपउं फूल चरावउ । गुर परसादि निरंजनु पावउ ।।4।।
पुजा अरचा आहि न तोरी । कहि रविदास कवच गति मोरी ।।5।।
अर्थात कोर्इ भी फूल अपने आराध्य की पूजा करने के योग्य नहीं लगता क्योंकि फूल को भंवरे ने जूठा कर दिया है, पानी को मछलियों ने, दूध को गाय के बछड़े ने और चंदन वृक्ष को भुजंग ने लिपटकर विष का मिश्रण कर दिया है। धूप, दीप और भोग एक रूढि़वादी परंपरा होने के कारण बासी हो गर्इ है और इसलिए पूजा के योग्य नहीं है। इस प्रकार किस तरह अपने आराध्य की पूजा की जाए? अपने आराध्य की पूजा के बिना मनुष्य की क्या गति होगी? इसलिए भगवान रविदास जी कहते हैं कि पवित्र तन मन ही गुरू कृपा के लिए पूजा के सर्वश्रेष्ठ साधन है। इसी से सब को गुरू प्रसाद अर्थात आशीर्वाद की प्रापित होती है।
'तेरो किआ तुझही किआ अरपउ। भावार्थ यह है कि अपने तन-मन और विचारों की पवित्रता ही अपने आराध्य की सच्ची पूजा है। इस प्रकार भगवान रविदास जी द्वारा प्रदत्त रविदासिया धर्म की पूजा आराधना पद्धति है जो कर्मकांड एवं पाखंड से दूर है, प्राकृतिक एवं स्वभाविक हैं जो इस धर्म को सर्वश्रेष्ठ धर्म साबित करती है।
भगवान रविदास जी की वाणी 'हरि-सोहम उच्चारण करने से प्रेम भाव निर्माण होता है। 'हरि-सोहम उच्चारण करने से अपनी कभी हार नही होती। दूसरा कुछ खोजने की आवश्यकता ही नहीं रहती। यह गुरुदेव का भजन है जिससे कि मनुष्य के मन में कोर्इ डर नहीं रहता। सुबह-शाम व ध्यान के समय 'हरि-सोहम उच्चारण करने से मनुष्य को कोर्इ भी बाधा नही होती इसलिए मनुष्य का मन निर्मल होकर, गरू चरणों में भेंट हो जाता है, मन शांत होता है और मनुष्य नीति मार्ग का आचरण करता है। यही 'रविदासिया धर्म का मूल तत्व है।
अब हमारा स्वतंत्र धर्म होगा। चमार जातियों का धर्म - 'रविदासिया धर्म । हमारे गुरु, हमारे मसीहा, हमारे भगवान - भगवान रविदास जी, 'रविदासिया धर्म के संस्थापक है। अछूत जाति में पैदा हुए हैं। जिनको धमार्ंतरण करने की जरुरत है वे सभी विभिन्न चमार जातियां हैं। इसलिए, हमारा 'रविदासिया धर्म चमारों की विभिन्न जातियों का धर्म है।
'रविदासिया धर्म हमारे लिए धमार्ंतरण नहीं है । सवर्ण हिन्दू के निर्माण होने के पहले हमारा समाज चँवरवंशी था। इसलिए हमारा वंश, हमाारी जडे़, भगवान रविदास जी से जुड़ी होने से सभी चमार जातियां जन्म से ही 'रविदासिया हैं। मतलब, हम लोग 'रविदासिया है । हमारा समाज 'रविदासिया है । हमारा धर्म 'रविदासिया है । हमारी अस्पृश्य जातियां भगवान रविदास जी की आध्यातिमकता की मजबूत जड़ों पर खडे़ 'रविदासिया धर्म रुपी वृक्ष की शाखाएँ है। इसलिए हमारा नारा है 'जाति समेत धमार्ंतरण !
साथ ही साथ, यह भी ध्यान रखना होगा कि चमार जातियों मे केवल धार्मिक, आध्यातिमक, बदलाव करने हेतु धमार्ंतरण करके चमारों को कोर्इ लाभ होने वाला नही है। बलिक, हमें अपने 'रविदासिया धर्म को भारतीय जनगणना 2021 में रजिस्टर करवाना भी जरूरी है। जिसके लिए धमार्ंतरण करने वाले प्रत्येक व्यकित को प्रथमत: सरकारी गजट में कानूनी तौर पर अपना धर्म बदलना जरुरी है। नोटीफार्इड क‚पी प्राप्त करके निजी ड‚क्युमेंट मे जरुरी बदलाव करना महत्वपूर्ण साबित होगा। क्योंकि, उस के आधार पर ही आपको 2021 में होने वाली भारतीय जनगणना में परिवार फार्म भरके देना होता है। साथ ही यह भी सावधानी बरतनी होगी की परिवार फार्म में 6 नं. क‚लम में धर्म 'रविदासिया और 7 नं. क‚लम में जो आपकी 'जाति है, को भी लिखना जरुरी है। लगभग 21 करोड़ अछूत चमार जातियों को भारतीय समाज व्यवस्था में स्वतंत्र पहचान बनाने के लिए भारतीय जनगणना ही एकमात्र साधन है। धर्म निर्धारित आंकड़ों से ही यह सिद्ध हो सकता है। तभी, दूसरों पर निर्भर न रहते हुए, हमारे अपने समाज की संख्याबल के आधार पर भारतीय राज्यसत्ता में भागीदारी और संपत्ती में हिस्सेदारी का हक हमें प्राप्त हो सकेगा। इसलिए, तमाम अस्पृश्य चमार जातियों को धमार्ंतरण करना जरुरी हो गया है ।
रविदासिया समाज बंधुओं के लिए महत्वपूर्ण सूचना
भार्इयों और बहनों -
1. हमारा धर्म बदल भी गया तो हमारे संविधान में हमारी अनुसूचित जाति कायम रहेगी।
2. जब तक हमारे कागजात, सरकारी रिकार्ड पर जाति संबंधी जानकारी कायम है, तब तक अनुसूचित जाति के नाम पर मिलने वाली सभी सहूलियतें, सामाजिक, शैक्षणिक लाभ, राजनीतिक आरक्षण तथा सभी संवैधानिक अधिकार मिलते रहेंगे।
3. इसलिए, हर रोज के व्यवहार में, परिचय देते समय, शादी-विवाह में, भाषण करते समय, कहानी, उपन्यास, वीर रस के गीत, कविता लिखते समय, गाते समय अपने समाज का उल्लेख 'रविदासिया समाज ही करें।
4. अपने घर परिवार में जन्मे हुए शिशु का अस्पताल, नगरपालिका में नाम दर्ज कराते समय आंगनवाड़ी या प्रार्इमरी स्कूल में छोटे बच्चों का दाखिला कराते समय और जहां-जहां छोटे बच्चों के धर्म व जाति का रिकार्ड कराना जरूरी है वहां-वहां अपना धर्म 'रविदासिया और अनुसूचित जाति जो जिस जाति के हैं उसका उल्लेख करें, जैसे - जाटव, मेघवाल, बैरवा, चांभार, ढोर, माला, मादिगा, मोची, चमार, भंगी, परमार, समगर, रेगर, दुसाध, पासी, बलार्इ आदि।
5. और, जिन बच्चों के जाति धर्म का उल्लेख पहले हो रखा हैं, उससें कोर्इ भी बदलाव न करें।
6. उसी तरह, इससे पूर्व बने हुए जाति प्रमाण-पत्रों, स्कूल के दाखिले, राशनकार्ड के हिन्दू धर्म व जाति सबंधी लिखावट को बदलने की आवश्यकता नहीं है।
7. इससे आगे, जब भारत की जनगणना हो, उसमेंं अपना धर्म 'रविदासिया व अपनी 'अनुसूचित जाति का उल्लेख कराएं।
8. इस तरह भारतीय समाज व्यवस्था में 'रविदासिया धर्म प्रस्तावित होकर रविदासिया समाज एकजुट होने पर चमार, ढोर, माला, मादिग, मोची, चमार, भंगी, जाटव, दुसाध, पासी, बलार्इ, मेघवाल, परमार, रेगर आदि जाति वाचक नाम अपने आप समाप्त हो जाएंगे।
9. 'रविदासिया समाज की पहचान का निर्माण होगा। आगे की पीढि़यों को स्वतंत्र धार्मिक पहचान, समान सामाजिक दर्जा, राजनीतिक साख एंव प्रतिष्ठा स्वत: ही प्राप्त हो जाएगी।
इस लक्ष्य की प्रापित के लिए क्या करें ?
1. गांव-गांव में अल्पसंख्यक क्षेत्र के चर्मकार समाज को तहसील स्तर से चर्मकार समाज से जोड़ना होगा।
2. तहसील स्तर पर संपूर्ण विधानसभा क्षेत्र के चर्मकार समाज को एकत्रित करने से समाज का एक संघ तैयार होगा।
3. इसी संघ का गठन स्वतंत्र 'रविदासिया समाज समिति के रूप में प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में करना होगा।
4. संपूर्ण भारत के राज्य व केंæ शासित प्रदेश की 'रविदासिया समाज समितियों को 'अखिल भारतीय रविदासिया धर्म संघठन से जोड़ा जाऐगा।
5. इस तरह संपूर्ण भारत के चर्मकार समाज के भार्इयों को 'रविदासिया धर्म का सुरक्षा कवच अपने आप ही मिल जाएगा।
6. इससे चर्मकार समाज के मन में अल्पसंख्यक होने का डर समाप्त हो जाएगा। और, मन का खौफ नष्ट हो जाने से मनुष्य के प्रगति के बंद दरवाजे अपने आप खुल जाते हैं। हमारे समाज के साथ भी यही होगा।
इसलिए आर्इए, हम सभी अपने अपने विधानसभा क्षेत्र में 'रविदासिया समाज समितियों का गठन करें-
1. रविदासिया समिति एक प्रकार से सभी चमार जातीयों की एक समिति होगी।
2. संपूर्ण भारत के प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में एक-एक समिति होगी।
3. यह समिति विधानसभा क्षेत्र के समाज भार्इयों में 'रविदासिया धर्म को फैलाने का काम करेगी।
4. यह कमेटी विधान सभा क्षेत्र के समाज भार्इयों का डाटा जमा करेगी।
5. विधानसभा अध्यक्ष द्वारा जमा किया डाटा एकत्रित कर उसमें से अगली कमेटी दो वषोर्ं के लिए चुनी जाएगी।
6. रविदासिया समाज समिति के सदस्य, पदाधिकारी अन्य किसी भी धर्म की श्रद्धा, अंधश्रद्धा, रुढि, परम्परा, देवी-देवताओं पर टिपण्णी नहीं करेंगे।
7. ऐसा कोर्इ भी आचरण समिति सदस्य नहीं करेंगे जिससे सवर्ण हिन्दू समाज व रविदासिया समाज के बीच द्वेष या दूरी पैदा हो।
8. 'रविदासिया धर्म प्रचार-प्रसार के लिए केन्æीय व राज्यस्तरीय कमेटी की स्थापना, हमारे धर्म गुरू द्वारा ही की जाएगी।
9. भगवान रविदास महारज जी की जयंती साल में एक बार, एक ही दिन, माघ पूर्णिमा को रविदासिया समाज समिति के मुख्यालय में सभी समाज भार्इयों की उपसिथति में मनार्इ जाएगी।
10. रविदासिया समाज समिति के द्वारा प्रत्येक विधानसभा क्षेत्र में एक रविदासिया भवन का निर्माण किया जाएगा तथा वह हमारे समाज का धर्म संघ व विचारपीठ होगा।
11. रविदासिया समाज समिति उनके विधानसभा क्षेत्र के चर्मकार समाज की सभी जातियों के लोगों की जानकारी - कुल जनसंख्या, कुल मतदाता, संख्या सूची आदि को मतदाता अनुक्रमांक के रूप में जमा करेगी।
12. प्रत्येक परिवार की आर्थिक, शैक्षणिक व व्यावसायिक डाटाबेस जानकारी जमा करने का काम किया जाएगा।
जय रविदास ! जय भिम !! जय गुरु देव !!!
"जय श्री संत रविदास महाराज को कोटि कोटि नमन"
ReplyDelete"जय श्री संत रविदास महाराज को कोटि कोटि नमन"
ReplyDeleteसतगुरु रविदास जी के चरणों में कोटि कोटि नमन..��
ReplyDeleteJai gurudev g ,,aap log bagwan kyo likhte hai ,,guru likha kijiye
ReplyDeleteJai guru ravidas ji
ReplyDeleteसंत रविदास एक सच्चे शिवभक्त हिंदू राष्ट्रवादी सनातन धर्म के सनातन धर्म प्रचारक चरित्रवान पवित्र गुरु हैं ओम नमः ओम नमः शिवाय
DeleteKisi dUsrE state se rajasRaja me marriage karke aayi Hui chamar cast ki ladki ka sri ganga nagar (rajadtRaj) me cast certificate nhi bn RHA h, koi help kree.... 9782503555
ReplyDeleteSri ganganagar (Rajasthan)
ReplyDeleteJai satguru Ravidaas ji maharaja ki jai.
ReplyDeleteवीर शिरोमणि गुरूओं के गुरू सन्तों के सन्त गुरू रविदास जी माहाराज अमर रहे। जय संविधान निर्माता व राष्ट्र निर्माता बाबा साहेब डा.अम्बेड़कर जिन्दाबाद।जय भीम जी।
ReplyDeleteओम नमः शिवाय जय सनातन धर्म संत रविदास के अनुयाई हम सभी सच्चे शिवभक्त सनातन धर्म के सनातन धर्म प्रचारक हैं हम किसी से कम नहीं हैं हम सब के बराबर हैं हमारे बराबर सभी हैं एक परमात्मा शिवजी के अलावा और किसी की आज्ञा हम मानते नहीं हैं ओम नमः शिवाय
ReplyDeleteओम नमः शिवाय जय हिंदू राष्ट्र जय सनातन धर्म जय संत रविदास ओम ओम
Deleteजय गुरू रविदासजी महाराज री जय भीम जय गुरूदेव री
ReplyDeleteJai guru Ravidas, jai bhim , jai bharat
Deleteजय भीम
ReplyDeleteJai bhim
ReplyDeleteJai bhim
ReplyDeleteRavidassiya dharm banane k liye kitne % logo ko ravidassiya dharm apnana padega ??
ReplyDeleteHam sab manab hai kyoki manabta se bada koyi darm nahin hota hai
ReplyDeleteJai Bhim
ReplyDelete"जय श्री संत रविदास महाराज को कोटि कोटि नमन"
ReplyDeleteMukesh 79816@gmail.com(Google)
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